Book Title: Parshvanatha Charita Mahakavya
Author(s): Padmasundar, Kshama Munshi
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 212
________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित Jain Education International सर्वे भोगास्तावदापातरम्याः पर्यन्ते ते स्वान्तसन्तापमूलम् । तद्धानाय ज्ञानिनां द्राग् यतन्ते भोगान् रोगानेव मत्वाऽऽततत्त्वाः ॥७८॥ मन्येतासौ सौख्यमायासमात्रं भोगोदभूतं श्वा दशन्नस्थि यद्वत् । अज्ञानात्माऽसंविदानः स्वनिघ्नं ब्रह्माद्वैतं संविदानन्दसान्द्रम् ॥७९॥ स्पर्शाद्धस्ती भक्ष्यलौल्याण्झषात्मा गन्धाद भृगो दृष्टिलौल्यात् पतङमः । गीतासङ्गाजीवनाशं कुरङ्गो नश्यत्येतान् धिक् ततो भोगसङगान् ॥ ८० ॥ कर्मोद्भूतं यत् सुखं यच्च दुःखं सर्व दुःखं तद्विदुर्दुःखहेतोः । या भोग्यं स्वाद्वपि स्याद् विषाक्तं पर्यन्ते तत् प्राणविघ्नाय सर्वम् ॥८१॥ तस्माद ब्रह्मा तमव्यक्तलिङ्ग ज्ञानान तज्योतिरुद्योतमानम् । नित्यानन्दं चिदगुणोज्नम्भमाणं स्वात्मारामं शर्मधाम प्रपद्ये ॥ ८२ ॥ वह स्वतन्त्र तथा ज्ञानानंदमय लोलुपता से मछली, गन्ध से ब्रह्माद्वैत को नहीं जानता । भौरा, दृष्टि को लालसा से (७८) जिन्होंने तत्त्व समझ लिया है और जो ज्ञानी हैं वे भोगों को रोग ही मानकर उन्हें नष्ट करने के लिए शीघ्र प्रयत्न करते हैं । (७९) जैसे हड्डी को काटता हुआ कुत्ता तज्जन्य परिश्रम को सुख समझता है, वैसे जो आदमी भोगजन्य केवल परिश्रम को ही सुख समझता है वह अज्ञानी है और (८०) स्पर्श से हाथी, भक्ष्य की पतङ्गा, गीत सुनने से हिरण- ये सभी नष्ट हो जाते हैं। अतः भोगासक्ति को धिक्कार है । (८१) कर्मों से उत्पन्न चाहे सुख हो या दुःख हो, वह सब दुःख ही है, क्योंकि वह सब दुःखोत्पादक है । अथवा स्वादु वस्तु जो भक्षणयोग्य परन्तु विषाक्त है, अन्त में वह प्राणघात के लिए ही होती है। (भोजन स्वादिष्ट होने पर भी अगर विषमिश्रित हो तब वह भन्त में प्राणघात करेगा ही ) | ( ८२) अतः अव्यक्तलिङ्ग, ज्ञान की अनन्त ज्योति से प्रकाशमान, नित्यानन्द, आत्मगुणों के पूर्ण प्राकट्य वाले, कल्याण के धाम और ब्रह्माद्वैतरूप अपनी आत्मा के सुख को ही मैं प्राप्त करूँ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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