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पद्मसुन्दरसूरिविरचित
सौधर्मेन्द्रो जयेत्युक्त्वा वारिधारां न्यपातयत् । जयध्वनिप्रतिध्वानैः सुराः सांराविणं व्यधुः ॥ १४५ ॥ दोः सहस्रैः सहस्राक्षः कलशानुज्जहार यत् । तद्भाजनाङ्गैः कल्पद्रुशाखाभूषां जिगाय सः || १४६॥ जिनमूनि पतन्ती सा धारा हारानुकारिणी । स्वर्गङ्गेव रराजोच्चैर्हिमाद्रिशिखरे ध्रुवम् ||१४७|| अनन्तरं च शेषेन्द्रैः समस्तैश्च समन्ततः । विष्वद्रीची पयोधारा पातिता पावनक्षमा ॥ १४८ ॥ महापगाप्रवाहाभा वारिधाराः स्वमूर्धनि । गिरीशवदुवाहोच्चैर्भगवान् गिरिसारभृत् ॥१४९॥ जिनाङ्गसङ्गपूताङ्गा निर्मला वारिविन्दवः । भेरूर्ध्वगतिमूर्ध्नि सम्पातोच्छलनच्छलात् ॥ १५० ।। केsपि तिर्यग्गता वारिशीकराः शीभवाः इव । दिग्गजानां करास्फालनाग्रगाः किल रेजिरे ॥ १५१ ॥ जडानामुच्चसङ्गोऽपि नीचैः पाताय केवलम् । उत्पतन्तोऽप्यधः पेतुः स्नानीया जलबिन्दवः ॥१५२॥
(१४५) सौधर्मेन्द्र 'जय' शब्द कहकर जलधारा को गिराने लगे । 'जय जय' ध्वमि की प्रतिध्वनि से सभी देवता जोर की आवाजें करने लगे । ( १४६) हजारों भुजाओं से इन्द्र कलश उठाते थे । उस समय वह उन पात्रों से कल्पवृक्ष की शोभा को भी जीत लेते थे । (१४७) कण्ठहार के समान, भगवान् जिनदेव के मस्तक पर पड़ती हुई वह जलधारा हिमालय के शिखर पर जोर से पड़ती हुई देवनदी गंगा की तरह शोभित होती थी । ( १४८) इसके पश्चात् समस्त शेष इन्द्र आदि देवों ने चारों ओर फैलने छोड़ी । ( १४९) पर्वत के बल को धारण करने वाले भगवान ने हिमालय की भाँति अपने मस्तक पर गंगा आदि नदियों के प्रवाह के समान पड़ती हुई जलधाराओं को धारण किया । ( १५० ) जिनेश्वर भगवान् के अंग के संग से जिनके अंग पवित्र हुए हैं ऐसी निर्मल पानी की बूँदे मस्तक पर पड़ कर उछलने के बहाने से ऊपर उठती थीं। (१५१) स्नानाभिषेक
वाली और पवित्र करने वाली जलधारा
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के समय कतिपय तिरछी हुई जल की बुँदे दिग्गजों की सूँड के फुव्वारे की तरह शोभित होतीं थीं । ( १५२ ) जड़ ( = मूर्ख) संगति भी मात्र नीचे की ओर पतन के लिए ही होती है। की बूँदें ऊपर उठती हुई भी नीचे की ओर ही गिरती थीं ।
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आस्फालन से दूर तक फैलते हुए लोगों की उच्च लोगों के साथ इसी प्रकार स्नानसंबंधी जल
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