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पद्मसुन्दरसूरिविरचित
प्रभुत्वशक्तिर्यत्र स्यादाधिक्यं दण्ड-कोशयोः । दण्ड्यानां दण्डतः कोशवृद्धिर्नीतिश्च जायते ॥१०४॥ स राजा यस्य कोशः स्यादः विना कोशं न राजा । नरस्य न नरो भृत्यः किन्तु कोशस्य भूपतेः ॥१०५॥ साम-दाने भेद दण्डावित्युपाय चतुष्टयी । तत्र साम प्रियैर्वाक्यैः सान्त्वनं कार्यकृन्मतम् ॥१०६॥ गजाश्वपुररत्नादिदानैः शत्रोर्विभज्य च । दायादमन्त्रिसुभटान् द्विषं हन्यादुपायवित्
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उक्तं च
लब्धस्य हि न युध्यन्ते दानभिन्नानुज विनः । Marisara कैरेव दानभिन्नैर्विभज्यते ॥ १०८॥ भेदः स्यादुपजापो यद् बन्धूनां शत्रुसङ्गिनाम् । विभिन्नानां वशीकात् क्रियते शत्रुनिग्रहः ॥ १०९ ॥
यद् उक्तम्
दायादादपरो मन्त्रो न ह्यस्त्य कर्षणे द्विषाम् । तर उत्थापयेद् यत्नाद दायादं तस्य विद्विषः ॥ ११० ॥
(१०४) जहाँ दण्ड (शिक्षा) और कोष का आधिक्य हो वह प्रभुत्वशक्ति है । शिक्षापात्र को शिक्षा देने से कोश की वृद्धि होती है और नीति का आविष्कार होता है । (१०५) जिसका कोष सम्पन्न है वही राजा हैं, बिना कोष के कोई गजत्व नहीं । मनुष्य मनुष्य का सेवक नहीं अपितु मनुष्य भूपति के कोष का सेवक होता है । ( १०६) राजनीति में साम दान, दण्ड, भेदं ये उपायचतुष्टय ही प्रमुख हैं । प्रिय वाक्यों से सान्त्वना देना ही, जो कार्य साधक होता है, साम माना गया है । (१०७) हाथी, घोडे, नगर (गाँव), रहन आदि दान देकर शत्रु के दायाद को ( युवराज, राजवंशी या राज्य के वारस को), मन्त्रियों को एवं सुभटों को फोडकर शत्रुओं का नाश करें । (१०८) कहा भी है दान द्वारा फोडे हुए सेवक जिस (राजा) के पास से लाभ प्राप्त करते हैं उसके साथ लड़ते नहीं हैं अपितु ) वे फोड़े हुए सेवक उस (राजा) को विशेषतः भजते हैं । (१०९) शत्रु के सहायक बन्धुओं को विप्लव के लिए गुप्तरीति से प्रोत्सा हेत करनायह भेद है । शत्रु से जो नाराज हो उन सबको अपने वश में कर लेने से शत्रु को दबाया जाता है । (११०) क्यों कि कहा गया है - शत्रुओं को आकृष्ट करने में दायाद ( युवराज, राजवंशी या राज्य के बारस) से अन्य कोई मन्त्र नहीं है । अतः उस के दायाद को प्रयत्नपूर्वक उठाना (अपनी ओर मिलाना) चाहिए ।
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