________________
से पव' चार यामों को स्वीकार करने वाला एक निग्रन्थ सम्प्रदाय अवश्य ही विद्यमान था और उस सम्प्रदाय के नेता भगवान पाश्व' थे ।
भगवती, सूत्रकृताङ्ग तथा उत्तराध्ययन आदि आगमों में अनेकों पाश्र्वापत्य श्रमणों का उल्लेख प्राप्त होता है जिन्हों ने गौतम के स्पष्टीकरण के पश्चात् चार याम वाले धर्म के स्थान पर महावीर के पंचमहाव्रत रूपी धर्म को स्वीकारा है।।
___ भगवतीसूत्र, पंचमभाग, शतक पन्द्रह में शान, कलद, कर्णिकार आदि छः दिशाचरों का वर्णन आता है । वे अष्टाङ्ग निमित्त के ज्ञाता थे और उन्हों ने आजीवक संघ के स्थापक गोशालक का शिष्यस्व स्वीकार किया था । इन दिशाचरों के विषय में प्राचीन टीकाकारों का कथन है कि ये महावीर के संयम से पतित शिष्य थे पर चूर्णिकार का कहना है कि ये भगवान पाश्व'नाथ के सन्तानीय ( शिष्यानुशिष्य) थे ।
बौद्ध साहित्य में महावीर और उनके शिष्यों को चातुर्याम युक्त कहा है । ३ दी. निकाय में वर्णित है, एक बार अजातशत्र ने भगवान बुद्ध से श्रमण भगवान महावीर से हुई अपनी एक मेंट का उल्लेख किया है । जो निम्न प्रकार है-“भन्ते! मैं निगण्ठ नात्त. पुत्र के पास भी गया और उनसे भी सादृष्टिक श्रामण्यफल के विषय में पूछा । उन्होंने मुझे चातुर्याम संवरवाद बतलाया । उन्होंने कहा-निगण्ठ चार संवरों से संवृत रहता है। (१) वह जल के व्यवहार का वजन करता है, जिससे जल के जीव न मरे । (२) वह सभी पापों का वजन करता है । (३) सभी पापों के वजन से धूतपाप होता है। (४) सभी पापो के वजन में लाभ रहता है । इसलिए वह निग्रन्थ गतात्मा, यतात्मा और स्थितात्मा कहलाता है।
___ संयुक्त निकाय में इसी तरह निक नामक एक व्यक्ति ज्ञातपुत्र महावीर को चातुर्यामयुक्त कहता है।
उपर्युक्त उद्धरणों से यह ज्ञात होता है कि बौद्ध भिक्षु अवश्य ही पार्श्वनाथ के चातुर्यामयुक्त धर्म से परिचित रहे हैं तथा उन्हें महावीर द्वारा किये गये परिवर्तन का ज्ञान नहीं है।
जैन आगम साहित्य में 'पूर्व' साहित्य का उल्लेख प्राप्त हुआ है । ये 'पूर्व' चौदह थे, पर आज वे सभी लुप्त हैं। डॉ. हर्मन जैकोबी का कथन है कि श्रुतांगों के पूर्व अन्य 1. व्याख्याप्रज्ञप्ति-१।९।७६।, उत्तराध्ययन-२३, सूत्रकृतांग २, नालदीयाध्ययन । 2. भगवातीसूत्र श. १५, गोशालक चरित्र, पृ० २३७१ । दिशाचरों के नाम : शान,
कलन्द, कर्णिकार, अछिद्र, अग्निवेश्यायन और गोमायुपुत्र अर्जुन । 3. भगवान पार्श, देवेन्द्रमुनि, पूना, १९६९, पृ. ६४ । 4. दीघनिकाय, सामफलमुत्त, १-२ । 5. भगवान पार्श्व, देवेन्द्रमुनि, पूना, पृ. ६५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org