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परम ज्योति महावीर
गन्धर्व-अप्सरा-नर्तक सँग, वे सुरपुर के सम्राट चले । अब यहाँ नरों के द्वारा कृत, जन्मोत्सव विविध-विराट चले ॥
जिनको विलोक कर लोचन निज, सफलित मानेहर प्राणी ने । पर जिनके सारे वर्णन में, ली मान हार कवि वाणी ने ॥
ऐसे अनेक प्रायोजन थे, चलते रहते दिन रात वहाँ । सम्बन्धी आते रहते थे, ले ले सुन्दर सौगात वहाँ ।
पाते ही प्रथम बधाई सब, देते थे राजा रानी को फिर अपलक देखा करते थे, उन भावी केवल ज्ञानी को।
कारण, न विलोका था कोई, बालक इतना अभिराम कहीं। लगता था त्रिभुवन की सुषमाने बना लिया हो धाम यहीं ॥ .