Book Title: Param Jyoti Mahavir
Author(s): Dhanyakumar Jain
Publisher: Fulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore

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Page 355
________________ হিমান্বিৰু মাৰ জীগ ६२३ अश्वमेध-एक प्रसिद्ध वैदिक यश जिसे कोई चक्रवर्ती राजा या सम्राट ही कर सकता था और जिसमें सभी देशों का भ्रमण कर लौटने वाले घोड़े को मार कर उसकी चर्बी से हवन किया जाता था । गोमेध-कलियुग के लिये निषिद्ध एक वैदिक यज्ञ जिसमें गोबलि का विधान है। शूद्र-शिल्प, विद्या व सेवा कार्य से आजीविका करने वाला वर्ण, ऋषभदेव द्वारा स्थापित । सामवेद-तीसरा वेद । नीच-जो जाति, गुण, कर्म श्रादि में घट कर हों। दसवाँ सर्ग मोहनीय-अाठ मूल कर्मो में चौथा कर्म । इसके दो भेद हैंदर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्तव । चारित्र मोहनीय के २५ मेद हैं १६ कषाय और ६ नोकषाय । भाग्य-शुभाशुभ सूचक कर्म जन्य अदृष्ट । विवाह-दाम्पत्य सूत्र में श्राबद्ध होने की एक प्रथा जो धर्मशास्त्र में ८ प्रकार (पार्ष, ब्राझ, दैव, प्राजापत्य, प्रासुर, गान्धर्व, राक्षस, और पैशाच) की मानी गयी है। प्रमाद-कषाय के तीन उदय से निर्दोष चारित्र पालन में उत्साह का न होना व अपने आत्म-स्वरूप की सावधानी न होना । इसके १५ भेद हैं।

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