Book Title: Param Jyoti Mahavir
Author(s): Dhanyakumar Jain
Publisher: Fulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore

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Page 356
________________ ६३८ परम ज्योति महावीर इक्कीसवाँ सर्ग सप्तव्यसन - जुवा, माँस, मदिरा, चोरी, शिकार, वेश्या और - परस्त्री इन सात बातों का शौक रखना । भ्रष्ट मूल गुण -- गृहस्थ श्रावक के पालने योग्य श्राचरण, जिसे उसे नित्य पालना चाहिये । मद्य त्याग, मांस त्याग, मधु त्याग, संकल्पी हिंसा त्याग, स्थूल झूठ त्याग, स्थूल चोरी त्याग' स्व स्त्री संतोष और परिग्रह का परिमाण । त्याग - धर्मदान करना । श्राहार, औषधि, अभय व ज्ञानदान धर्मात्मा पात्रों को भक्ति पूर्वक व अपात्रों को करुणा दान से देना । एकादश प्रतिमा - पाँचवें गुण स्थान में ११ श्र ेणियाँ होतीं है - दर्शन प्रतिमा, व्रत प्र०, सामायिक प्र०, प्रोषधोपवास सचित्त विरति प्र०, रात्रि भुक्ति त्याग प्र०, ब्रह्मचर्य 'प्र०, आरम्भ त्याग प्र०, परिग्रह त्याग प्र०, अनुमति त्याग प्र० और उद्दिष्ट त्याग प्र० । ܘܟ सम्यक्त्तवी - सम्यग्दर्शन धारी मानव में ४८ मूल गुण व १५ उत्तर गुण होते हैं । २५ मल दोष रहित पना ८ संवेगादि लक्षण + ७ भय रहित पना + ३ शल्य रहित पना + ५ अतिचार रहित पना = ४८७ व्यसन त्याग + ५ उदम्बर फल त्याग + ३ मदिरा, मांस, मधु (मकार) त्याग = १५ उत्तर गुण । बाईसवाँ सर्ग अनगार - मुनि, गृह श्रादि परिग्रह रहित साधु, जिसके गृह सम्बन्धी तृष्णा चली गयी हो । अनगार के पर्यायवाची ये १० शब्द है-

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