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परम ज्योति महावीर
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माँ लगीं सिखाने बच्चों को, करना प्रभुवर का वन्दन यों। कर जोड़ नवाना शीश तुरत, निकलें वे त्रिशला-नन्दन ज्यो ।।
अति भक्ति भाव से गद्गद हो करना जयकार समादर से । बरसाना उन पर पुष्पों की पंखुड़ियाँ गृह की छत पर से ।।
यों इसी विषय की चर्चा थी, नगरी की सभी दिशाओं में । जो बिजली जैसी फैल रहो-- थी पास पास के गाँवों में ।।
औ' इधर 'वीर' मुँह माँगा धन, देते जाते थे दीनों को । श्रीमन्त बनाते जाते थे, वे आज सभी श्रीहीनों को ।।
कर डाला दीन दरिद्रों का, दारिद्रय सर्वथा दूर सभी । दे डाले तन के भूषण तक कण्ठी, कुण्डल, केयूर सभी॥