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सोलहवाँ सर्ग
नहीं,
पर जागा काम - विकार
निस्सार सकल व्यापार रहे ।
असफल हो वे पर 'वीर' पूर्ण
ही विकृत हुई, श्रविकार रहे |
बाँध,
श्राजानु बाहु के बाहु
पाये उनके भुजपाश नहीं । श्राशा तक उनको छोड़ चली, पर छोड़ी उनने आश नहीं ॥
सभी ।
बोलीं- "हमने था सुना श्राप, हरते दुखियों की पीर श्र' पर - उपकार - निमित्त लगादेते मन वचन शरीर सभी ॥
हम तो नवनीत
पर आप बज्र से
यह भी था सुना श्रापका मन, मृदु है शिरीष के फूल सदृश । पर श्राज यहाँ हम देख रहीं, वह है करील के शूल सदृश ||
समान बनी, बने रहे ।
हम झुकीं लता सी किन्तु आप, तो हैं खजूर से तने रहे ॥
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