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बारहवाँ सर्ग
इससे ही उसने राजभवनको तृण समान ही लेखा था ।
तन के वसनों श्राभरणों को, प्रति तुच्छ दृष्टि से देखा था ॥
अविलम्ब उन्हें तज
वन में जा दीक्षा लेना
भव- सिन्धु कूल पर जाने निज जीवन नौका खेना था ॥
अतएव पिता औ' माता से, श्राज्ञा लेने वे वीर गये । अति कोमल वाणी में बोले, इस भाँति वाक्य गम्भीर नये ||
राजभवन,
था ।
को,
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'अब ग्राज मुझे जग के वैभव-से है विशेष निर्वेद हुवा | उनतीस वर्ष जो खोये है, उनका अतिशय ही खेद हुवा ॥
इतना जीवन खो दिया वृथा, धारा अब तक मुनिवेश नहीं ।
त्यागे तन के परिधान नहीं, स्वयमेव उखाड़े केश नहीं ॥
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