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प्रधान सम्पादकोंका वक्तव्य
प्रकार कर्मस्तव अधिकारकी सूचनासे प्रारंभ होता है और यहाँ 'बंधोदयसंतजयं वोच्छामि थवं णिसामेह' इस प्रतिज्ञा वाक्यके साथ । चतुर्थ अधिकार कर्मकाण्डकी ७८५ वीं गाथामें 'पयडीणं पञ्चयं वोच्छं' के प्रतिज्ञा-वाक्यसे प्रारम्भ होता है, और यहां 'जं पच्चइओ बंधो हवइ' । पाँचवाँ प्रकरण दोनोंमें उक्त प्रकार व्यवस्थित रीतिसे मेल नहीं खाता । गोम्मटसारकी कुल गाथा संख्या १७०५ है, जिनमें की बहुत-सी, विशेषतः प्रस्तुत पञ्चसंग्रहके आदिके दो-तीन भागोंमें क्रमबद्ध जैसीकी तैसी पाई जाती हैं । यही कारण है कि इसके संस्कृत टीकाकार सुमतिकीतिने अपनी पुष्पिकाओंमें इसे गोम्मटसार व लघुगोम्मटसार सिद्धांतके नामसे उल्लिखित किया है। जो भी हो किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि गोम्मटसार और प्रस्तुत पञ्चसंग्रहमें असाधारण मेल है। बीस प्ररूपणाओं द्वारा जीव समास निरूपण इन दोनोंमें समान है।
गोम्मटसारके कर्ता नेमिचंद्र सिद्धांत-चक्रवर्ती और उसका रचना-काल १०वीं शतीके सम्बन्धमें कोई सन्देह नहीं। किन्तु प्रस्तुत पञ्चसंग्रहके कर्ता और उनके रचनाकालका कोई निश्चय नहीं पाया जाता। प्रस्तुत ग्रंथकी भूमिकामें सम्पादकने कल्पना की है कि इसकी एक गाथा धवला टीकामें भी पाई जाती है, इसलिए इसकी रचना उससे पूर्वकालकी होनी चाहिए, तथा कर्मप्रकृतिके कर्ता शिवशर्म ही श्वेताम्बर पञ्चसंग्रह अंतर्गत शतकके रचयिता भी माने जाते हैं, अतः उसका रचनाकाल इसको पूर्वावधि कहा जा सकता है, और इस प्रकार इसकी रचना विक्रमकी ५वीं और ८वीं शतीके मध्यवर्ती कालमें हुई है। किन्तु पूर्वोक्त समस्त ग्रन्थ-परम्पराके प्रकाशमें यह कल्पना निर्णायक नहीं मानी जा सकती। विषयकी दृष्टिसे सम्पादकने हमारा ध्यान इसकी कुछ गाथाओंको ओर आकर्षित किया है। इसके प्रथम अधिकारको गाथा १०२-१०४ में द्रव्यवेदोंकी विपरीतताका उल्लेख किया गया है, जबकि धवलाकारने स्पष्ट कहा है कि वेद अन्तर्मुहुर्तक नहीं होते, क्योंकि जन्मसे लेकर भरण पर्यन्त एक ही वेदका उदय पाया जाता है। यही बात अमितगतिने अपने संस्कृत पञ्चसंग्रहकी गाथा १९१ में कही है। उसी प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थके प्रथम प्रकरण १९३ को गाथामें सम्यग्दृष्टि जीवकी छह अधस्तन पृथिवियों, ज्योतिषी, वाणव्यंतर और भवनवासी देवों तथा समस्त स्त्री पर्यायोंके अतिरिक्त बारह मिथ्यावादोंमें भी उत्पत्तिका निषेध किया गया है। किन्तु धवला और गोम्मटसारमें एक ही प्रकारसे उक्त निरूपण किया गया है जिसमें बारह मिथ्यावादका कोई उल्लेख नहीं है। यथार्थतः ये दोनों प्रकरण उक्त रचनाको धवलासे पूर्वको नहीं, किन्तु उससे पश्चात्कालीन इंगित कर रहे हैं। धवलाकारने अपने पूर्ववर्ती सिद्धान्त ग्रन्थोंका यत्र-तत्र स्पष्ट उल्लेख किया है। यदि यह पञ्चसंग्रह उनके सम्मुख होता तो कोई कारण नहीं कि वे उसका उल्लेख न करते, विशेषतः बीस प्ररूपणाओंके प्रसंगमें जहाँ उन्हें शंका-समाधान रूपमें कहना पड़ा है कि उनके निर्देश सूत्रोंमें नहीं है। अन्य किन्हीं रचनाओंमें भी इस ग्रन्थका उल्लेख प्रकाशमें नहीं आया। संस्कृत पञ्चसंग्रहके कर्ता अमितगतिके सम्मुख कोई पूर्व-रचित पञ्चसंग्रह अवश्य था, जिसके अन्तिम दो प्रकरणोंके नाम शतक और सत्तरी थे। यह बात माने बिना उनके द्वारा स्वीकार किये गये इन नामोंको सार्थकता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि वहाँ स्वयं इन प्रकरणोंमें सौ और सत्तर पद्योंसे अधिक पाये जाते हैं । सम्भव है प्रस्तुत पञ्चसंग्रहका मूलगाथा भाग ही उनके सम्मुख रहा हो । यदि यह बात ठीक हो तो इसके मूल रचनाकी उत्तरावधि वि० सं० १०७३ सिद्ध होती है, क्योंकि यही उस संस्कृत पञ्चसंग्रहकी रचनाका काल है। किन्तु इन दोनों रचनाओंमें जो अनेक भेद पाये जाते हैं जिनका उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थके सम्पादकने अपनी भूमिकामें किया है, उन्हें देखते हुए यह बात भी सर्वथा सन्देहके परे नहीं कही जा सकती। इस प्रकार इस रचनाका काल-निर्णय अभी भी विशेष अध्ययनकी अपेक्षा रखता है। हो सकता है कि मूलतः ये पाँचों प्रकरण पृथक् स्वतन्त्र गाथा-संग्रह थे, जिन्हें एकत्र कर व अन्य कुछ गाथाएँ जोड़कर भाष्यकारने पञ्चसंग्रह नामसे प्रगट किया हो। इस सम्बन्धमें यह भी विचारणीय है कि जब पूर्वो व पाहड़ोंकी परम्परामें षट्खण्डागम व धवला टीकाके काल तक कर्मसिद्धान्तका विवेचन बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्ध विधान इन चार अधिकारों द्वारा ही किया जाता रहा, तब यह पांच अधिकारोंकी परम्परा कब कहांसे चल पड़ी।
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