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रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला.
श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
इंदसदबंदियाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं । अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिद्भवाणं ॥ १ ॥
संस्कृतछाया. इन्द्रशतवन्दितेभ्यस्त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः ।
अन्तातीतगुणेभ्यो नमो जिनेभ्यो जितभवेभ्यः ॥ १ ॥
पदार्थ – [ जिनेभ्यो नमः ] सर्वज्ञ वीतरागको नमस्कार होहु । अनादि चतुर्गति संसारके कारण, रागद्वेषमोहजनित अनेक दुःखोंको उपजानेवाले जो कर्मरूपी शत्रु तिनको जीतनहारे होयँ सो ही जिन है. तिस ही जिनपदको नमस्कार करना योग्य है. अन्य कोई भी देव वंदनीक नहीं हैं. क्योंकि अन्य देवोंका स्वरूप रागद्वेषरूप होता है, और जिनपद वीतराग है, इस कारण कुंदकुंदाचार्यने इनको ही नमस्कार किया. ये ही परम मंगलस्वरूप हैं । कैसे हैं सर्वज्ञ वीतरागदेव ? [ इन्द्रशतवन्दितेभ्यः ] सौ इन्द्रोंकर वंदनीक हैं; अर्थात् भवनवासी देवोंके ४० इन्द्र, व्यंतर देवोंके ३२, कल्पवासी देवोंके २४, ज्योतिषी देवोंके २, मनुष्योंका १, और तिर्यंचोंका १, इस प्रकार सौ ईन्द्र अनादिकालसे वर्तते हैं, सर्वज्ञ वीतराग देव भी अनादि काल से हैं, इस कारण १०० इन्द्रोंकर नित्य ही बंदनीय हैं, अर्थात् देवाधिदेव त्रैलोक्यनाथ हैं। फिर कैसे हैं ? [त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः ] तीन लोकके जीवों के हित करनेवाले मधुर (मिष्ट - प्रिय), और विशद कहिये निर्मल हैं वाक्य जिनके ऐसे हैं । अर्थात् स्वर्गलोक मध्यलोक अधोलोकवर्त्ती जो समस्त जीव हैं, तिनको अखंडित निर्मल आत्मतत्त्वकी प्राप्तिकेलिये अनेक प्रकारके उपाय बताते हैं, इस कारण हितरूप हैं. तथा वे ही वचन मिष्ट हैं, क्योंकि जो परमार्थी रसिक जन हैं, तिनके
(१) “भवणालयचालीसा वितरदेवाण होंति बत्तीसा ॥ कप्पामरचवीसा चंदो सूरो णरो तिरओ ॥ १ ॥”