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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
जीव [ उर्ध्वं ] ऊंचे ऊर्ध्वगतिस्वभावसे [लोकस्य अन्तं ] तीन लोकसे ऊपर सिद्ध क्षेत्रको [ अधिगम्य ] प्राप्त होकर [ अतीन्द्रियं ] सविकार पराधीन इन्द्रिय सुखसे रहित ऐसे [ अनन्तं ] अमर्यादक [सुखं] आत्मीक स्वाभाविक अतीन्द्रिय सुखको [ लभते ] प्राप्त होता है ।
भावार्थ - यह संसारी आत्मा परद्रव्यके संबंधसे जब छूटता है, उस ही समय सिद्ध क्षेत्रमें जाकर तिष्ठता है. यद्यपि जीवका ऊर्ध्वगमनस्वभाव है, तथापि आगें धर्मास्तिकाय नहीं है. इस कारण अलोकमें नहिं जाता, वहींपर ठहर जाता है । अनन्तज्ञान अनन्त दर्शनस्वरूपसंयुक्त अनन्त अतीन्द्रिय सुखको भोगता है । मोक्षावस्था में भी इसके आत्मीक अविनाशी भावप्राण हैं | उनसे सदा जीवै है . इस कारण तहां भी जीवत्वशक्ति होती है । और उस ही चैतन्यस्वभाव शुद्धस्वरूपके अनुभवसे चेतयिता कहलाता है । और उसही शुद्ध जीवको चैतन्य परिणामरूप उपयोगी भी कहा जाता है और उसके ही समस्त आत्मीक शक्तियोंकी समर्थता प्रगट हुई है. इस कारण प्रभुत्व भी कहा जाता है । और निजस्वरूप अन्य पदार्थोंमें नही, ऐसे अपने स्वरूपको सदा परिणमता है, तातैं यही जीव कर्ता है | और स्वाधीन सुखकी प्राप्तिसे यही भोक्ता भी कहा जाता है और यही चर्मशरीर अवगाहनसे किंचित् ऊन पुरुषाकार आत्मप्रदेशोंकी अवगाहना लिये हुये है. इस कारण देहमात्र भी कहलाता है । पौलीक उपाधिसे सर्वथा रहित होगया है . इस कारण अमूर्त्तीक कहलाता है और वही द्रव्यकर्म भावकर्मसे मुक्त होगया है इस कारण कर्मसंयुक्त नहीं है । जो पहिली गाथामें संसारी जीवके विशेष कहे थे, वेही विशेष मुक्त जीवके भी होना संभव है । परन्तु उनमेंसे एक कर्मसंयुक्तपना नहीं बनै है और सब मिलतें हैं । कर्म जो है सो दो प्रकारका है. एक द्रव्यकर्म है एकभावकर्म है । जीवके संबंधसे जो पुद्गलवर्गणास्कन्ध हैं वे तो द्रव्यकर्म कहलाता है और चेतनाके विभावपर्याय हैं - वे भावकर्म हैं ।
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यहां कोई पूछे कि आत्माका लक्षण तो चेतना है सो वह विभावरूप कैसें होय ? उत्तर—संसारी जीवके अनादि कालसे ज्ञानावरणादि कर्मोंका सम्बन्ध है । उन कर्मों के संयोगसे आत्माकी चैतन्यशक्ति भी अपने निजखरूपसे गिरीहुई है. तातैं विभावरूप होता है । जैसें कि कीचके संबंधसे जलका स्वच्छ स्वभाव था सो छोड दिया है. तैसें ही कर्मके संबंधसे चेतना विभावरूप हुई है. इस कारण समस्त पदार्थोंके जाननेको असमर्थ है । एक देश कछुयक पदार्थोंको क्षयोपशमकी यथायोग्यतासे जानता है । और जब काललब्धि होती है तब सम्यग्दर्शनादि सामग्री आकर मिल जाती है. तब ज्ञानावरणादि कर्मोंका संबंध नष्ट होता है और शुद्ध चेतना प्रगट होती है - उस शुद्ध चेतनाके प्रगट होनेपर यह जीव त्रिकालवर्त्ती समस्त पदार्थोंको एक ही समय में प्रत्यक्ष जानलेता है । निश्चल कूटस्थ