Book Title: Panchastikay Samaysar
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Bakliwal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 98
________________ ७८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् संस्कृतछाया. एवं प्रवचनसारं पञ्चास्तिकायसङ्ग्रहं विज्ञाय ।। यो मुञ्चति रागद्वेषौ स गाहते दुःखपरिमोक्षं ।। १०३ ॥ पदार्थ-[य] जो निकटभव्य जीव [एवं] पूर्वोक्तप्रकारसे [पश्चास्तिकायसङ्ग्रहं] पंचास्तिकायके संक्षेपको अर्थात् द्वादशांगवाणीके रहस्यको [ विज्ञाय] भले प्रकार जानकर [रागद्वेषौ] इष्ट अनिष्ट पदार्थोंमें प्रीति और द्वेषभावको [मुश्चति] छोडता है [सः] वह पुरुष [दुःखपरिमोक्षं] संसारके दुःखोंसे मुक्ति [गाहते] प्राप्त होता है। भावार्थ-द्वादशांगवाणीके अनुसार जितने सिद्धान्त हैं तिनमें कालसहित पंचास्तिकायका निरूपण है और किसी जगह कुछ भी छूट नहिं किया है, इसलिये इस पंचास्तिकायमें भी यह निर्णय है इसकारण यह पंचास्तिकाय प्रवचन जो है सो भगवान्के प्रमाण वचनोंमें सार है । समस्त पदार्थोंका दिखानेवाला जो यह ग्रन्थ समयसार पंचास्तिकाय है इसको जो कोई पुरुष शब्द अर्थकर भलीभांति जानेगा वह पुरुष षड्द्रव्योंमें उपादेयखरूप जो आत्मब्रह्म आत्मीय चैतन्यखभावसे निर्मल है चित्त जिसका ऐसा निश्चयसे अनादि अविद्यासे उत्पन्न रागद्वेषपरिणाम आत्मखरूपमें विकार उपजानेहारे हैं उनके खरूपको जानता है कि ये मेरे स्वरूप नहीं. इसप्रकार जब इसको भेदविज्ञान होता है तब इसके परमविवेक ज्योति प्रगट होती है और कर्मबंधको उपजानेवाली रागद्वेषपरिणति नष्ट हो जाती है, तब इसके आगामी बन्धपद्धति भी नष्ट होती है। जैसें परमाणुबन्धकी योग्यतासे रहित अपने जघन्य स्नेहभावको परिणमता आगामी बन्धसे रहित होता है उसी प्रकार यह जीव रागभावके नष्ट होनेसे आगामी बन्धका कर्ता नहिं होता, पूर्वबन्ध अपना रसविपाक देकर खिर जाता है । तब यह चतुर्गति दुःखसे निवर्ति होकर मोक्षपदको पाता है । जैसें परद्रव्यरूप अग्निके सम्बन्धसे जल तप्त होता है वही जल काल पाकर तप्त विकारको छोड़कर खकीय सीतलभावको प्राप्त होता है, उसी प्रकार भगवद्वचनको अंगीकार करके ज्ञानी जीव कर्मविकारके आतापको नष्टकर आत्मीक शान्तरसगर्भित सुखको पाते हैं। ___ आगे दुःखोंके नष्ट करनेका क्रम दिखाते हैं अर्थात् किस क्रमसे जीव संसारसे रहित होकर मुक्त होता है सो दिखाते हैं। मुणिऊण एतददं तदणुगमणुज्झदो णिहदमोहो । पसमियरागद्दोसो हवदि हदपरावरो जीवो ॥ १०४॥ संस्कृतछाया. ज्ञात्वैतदर्थ तदनुगमनोद्यतो निहतमोहः । प्रशमितरागद्वेषो भवति हतपरापरो जीवः ॥ १०४॥

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