Book Title: Panchastikay Samaysar
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Bakliwal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 127
________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । १०७ और भेदस्वरूप है । एक चैतन्यभावकी अपेक्षा अभेद है. और वह ही एक चैतन्यभाव सामान्यविशेषकी अपेक्षा दो प्रकारका है. दर्शन सामान्य है ज्ञानका स्वरूप विशेष है. चेतनाकी अपेक्षा ये दोनों एक हैं. ये ज्ञानदर्शन जीवके स्वरूप हैं, इनका जो निश्चल थिर होना अपनी उत्पादव्ययधौव्य अवस्थासे और रागादिक परिणतिके अभाव से निर्मल होना उसका नाम चारित्र है वही मोक्षका मार्ग है । इस संसार में चारित्र दो प्रकारका है । एक स्वचारित्र और दूसरा परचारित्र है । स्वचारित्रको स्वसमय और परचारित्रको परसमय कहते हैं । जो परमात्मामें स्थिरभाव सो तो स्वचारित्र है और जो आत्माका परद्रव्यमें लगनरूप थिरभाव सो परचारित्र है । इनमें से जो आत्मा भावों में थिरताकर लीन है, परभाव से परान्मुख हैं, स्वसमयरूप है सो साक्षात् मोक्षमार्ग जानना आगें स्वसमयका ग्रहण परसमयका त्याग होय तब कर्मक्षयका द्वार होता है उससे जीवस्वभावकी निश्चल थिरताका मोक्षमार्गस्वरूप दिखाते हैं. जीवो सहावणियदो अणियदगुणपज्जओध परसमओ । जदि कुणदि सगं समयं पव्भस्सदि कम्मवंधादो ॥ १५५ ॥ संस्कृतछाया. जीवः स्वभावनियतः अनियतगुणपर्यायोऽथ परसमयः । यदि कुरुते स्वकं समयं प्रभ्रस्यति कर्मबन्धात् ॥ १५५ ॥ पदार्थ – [ जीवः ] यद्यपि यह आत्मा [ स्वभावनियतः ] निश्चयकरके अपने शुद्ध आत्मीक भावोंमें निश्चल है तथापि व्यवहारनयसे अनादि अविद्याकी वासनासे [ अनियतगुपर्यायः ] परद्रव्यमें उपयोग होने से परद्रव्यकी गुणपर्यायोंमें रत है अपने गुणपर्यायों में निश्चल नहीं है ऐसा यह जीव [ परसमयः ] परचारित्रका आचरणवाला कहा जाता है । [ अथ ] फिर वही संसारी जीव काललब्धिपाकर [ यदि ] जो [ स्वकं समयं ] आत्मीक स्वरूपके आचरणको [कुरुते ] करता है [ तदा] तब [कर्मबन्धात्] द्रव्यकर्मके बन्ध होनेसे [प्रभ्रस्यति ] रहित होता है । भावार्थ — यद्यपि यह संसारी जीव अपने निश्चित स्वभावसे ज्ञानदर्शन में ति है तथापि अनादि मोहनीय कर्मके वशीभूत होनेसे अशुद्धोपयोगी होकर अनेक परभावों कों धारण करता है । इसकारण निजगुणपर्यायरूप नहिं परिणमता परसमयरूप प्रवर्त्ते है । इसीलिये परचारित्रके आचरनेवाला कहा जाता है । और वह ही जीव यदि कालपाकर अनादिमोहिनीयकर्मकी प्रवृत्तिको दूरकरकें अत्यन्त शुद्धोपयोगी होता है और अपने एक निजरूपको ही धारै है, अपने ही गुणपर्यायोंमें परिणमता है, स्वसमयरूप प्रवर्त्ते है तब आत्मीक चारित्रका धारक कहा जाता है। जो यह आत्मा किसीप्रकार निसर्ग अथवा अधिगमसे प्रगट हो सम्यग्ज्ञान ज्योतिर्मयी होता है, परसमयको त्याग कर स्वसमयको

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