Book Title: Panchastikay Samaysar
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Bakliwal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 142
________________ १२२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कर्मकांडको आडंबर जान व्रतादिकमें विरागी होय रहे हैं. अर्द्ध उन्मीलित लोचनसे ऊर्ध्वमुखी होकर स्वच्छंदवृत्तिको धारण करते हैं. कोई २ अपनी बुद्धिसे ऐसा मानते हैं कि हम स्वरूपको अनुभवते हैं ऐसी समझसे सुखरूप प्रवत्र्ते है. भिन्न साध्यसाधनभावरूप व्यवहारको तो मानते नहीं, निश्चयरूप अभिन्न साध्यसाधनको अपनेमें मानते हुये यों ही बहक रहे हैं. वस्तुको पाते नहीं, न निश्चयपदको पाते हैं, न व्यवहार पदको पाते हैं. 'इतोभ्रष्ट उतोभ्रष्ट' होकर बीचमें ही प्रमादरूपी मदिराके प्रभावसे चित्तमें मतवाले हुये मूर्छितसे हो रहे हैं. जैसें कोई बहुत घी, मिश्री दुग्ध इत्यादि गरिष्ट वस्तुके पान भोजनसे सुथिर आलसी हो रहे हैं. अर्थात् अपनी उत्कृष्ट देहके बलसे जड़ हो रहे हैं. महा भयानक भावसे जानों कि मनकी भ्रष्टतासे मोहित विक्षिप्त हो गये हैं. चैतन्य भावकर रहित जानो कि बनस्पती ही हैं । मुनिपदवी करनेहारी कर्मचेतनाको पुण्यबंधके भयसे अवलम्बन नहिं करते और परम निःकर्मदशारूप ज्ञानचेतनाको अंगीकार करी ही नहीं, इसकारण अतिशय चंचलभावोंके धारी हैं. प्रगट अप्रगटरूप जो प्रमाद हैं उनके आधीन हो रहे हैं । महा अशुद्धोपयोगसे आगामी कालमें कर्मफल चेतनासे प्रधान होते हुये वनस्पतीकी समान जड़ हैं. केवल मात्र पापहीके बांधनेवाले हैं । सो कहा भी है । उक्तं च गाथा"णिञ्चयमालंवंता णिच्चयदो णिच्चयं अयाणंता । णासंति चरणकरणं वाहरिचरणालसा केई" ॥२॥ और जो कोई पुरुष मोक्षके निमित्त सदाकाल उद्यमी हो रहे हैं वे महा भाग्यवान हैं निश्चय व्यवहार इन दोनों नयोंमें किसी एकका पक्ष नहिं करते, सर्वथा मध्यस्थ भाव रहते हैं. शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्वमें स्थिरता करनेकेलिये सावधान रहते हैं । जब प्रमादभावकी प्रवृत्ति होती है तब उसको दूर करनेकेलिये शास्त्राज्ञानुसार क्रियाकांड परिणतिरूप प्रायश्चित्त करके अत्यन्त उदासीन भाव धारण करते हैं फिर यथा शक्ति आपको आपकेद्वारा आपमें ही वेदै है । सदा निजस्वरूपके उपयोगी होते हैं जो ऐसे अनेकान्त वादी साधक अवस्थाके धरनहारे जीव हैं वे अपने तत्त्वकी थिरताके अनुसार क्रमकमसे कर्मोंका नाश करते हैं. अत्यन्त ही प्रमादसे रहित होते अडोल अवस्थाको धरते हैं । ऐसा जानो कि बनमें वनस्पती है दूर कीना है कर्मफल चेतनाका अनुभव जिन्होंने ऐसे, तथा कर्म चेतनाकी अनुभूतिमें उत्साह रहित हैं. केवल मात्र ज्ञान चेतनाकी अनुभूतिसे आत्मीक सुखसे भरपूर हैं. शीघ्र ही संसार समुद्रसे पार होकर समस्त सिद्धान्तोंके मूल शास्वत पदके भोक्ता होते हैं।

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