Book Title: Panchastikay Samaysar
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Bakliwal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 125
________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । १०५ सर्वज्ञ सर्वदर्शी इन्द्रियव्यापाररहित अव्यावाध अनन्त सुखसंयुक्त सदाकाल स्थिरस्वभावसे स्वरूपगुप्त रहते हैं । यह भावकर्मसे मुक्तका स्वरूप दिखाया और ये ही द्रव्यकर्म से मुक्त होनेका कारण परम संवरका स्वरूप है । जब यह जीव केवलज्ञानदशाको प्राप्त होता है तब इसके चार अघातिया कर्म जली हुई जेवड़ीकी तरह द्रव्यकर्म रहते हैं । उन द्रव्यकर्मोंके नाशको अनन्त चतुष्टय परम संवर कहते हैं । आगें द्रव्यकर्ममोक्षका कारण और परम निर्जराका कारण ध्यानका स्वरूप दिखाते हैं । दंसणणाणसमग्गं ज्झाणं णो अण्णदव्वसंजुत्तं । जायदि णिज्जरहेद् सभावसहिदस्स साधुस्स ॥ १५२ ॥ संस्कृतछाया. दर्शनज्ञानसमग्रं ध्यानं नो अन्यद्रव्यसंयुक्तं । जायते निर्जराहेतुः स्वभावसहितस्य साधोः ॥ १५२ ॥ पदार्थ – [ दर्शनज्ञानसमग्रं ] यथार्थ वस्तुको सामान्य देखने और विशेषता कर जाननेसे परिपूर्ण [ ध्यानं ] परद्रव्यचिन्ताका निरोधरूप ध्यान सो [ निर्जराहेतुः ] कर्मबन्धस्थितिकी अनुक्रम परिपाटीसे खिरना उसका कारण [ जायते ] होता है । यह ध्यान किसके होता है ? [ स्वभावसहितस्य साधोः ] आत्मीक स्वभावसंयुक्त साधु महामुनिके होता है | कैसा है यह ध्यान ? [ नो अन्यद्रव्यसंयुक्तं ] परद्रव्य संबन्धसे रहित है । 1 भावार्थ – जब यह भगवान् भावकर्ममुक्त केवल अवस्थाको प्राप्त होता है तब निज स्वरूपमें आत्मीक सुखसे तृप्त होता है. इसलिये कर्मजनित सुखदुःख विपाकक्रियाके वेदनसे रहित होता है। ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मके जानेपर अनन्तज्ञान अनन्त दर्शन से शुद्धचेतनामयी होता है. इसकारण अतीन्द्रिय रसका आस्वादी होकर बाह्य पदार्थोंके रसको नहिं भोगता । और वही परमेश्वर अपने शुद्ध स्वरूपमें अखंडित चैतन्यस्वरूपमें प्रवर्त्ते है । इसकारण कथंचित्प्रकार अपने स्वरूपका ध्यानी भी है अर्थात् परद्रव्यसंयोगसे रहित आत्मस्वरूपध्यान नामको पाता है. इसकारण केवलीके भी उपचारमात्र स्वरूप अनुभवनकी अपेक्षा ध्यान कहा जाता है । पूर्वबंधे कर्म अपनी शक्तिकी कमी से समय समय खिरते रहते हैं, इसकारण बही ध्यान निर्जराका कारण है । यह भावमोक्षका स्वरूप जानना । आगे द्रव्यमोक्षका स्वरूप कहते हैं । जो संवरेण जुत्तो णिज्जरमाणोध सव्वकम्माणि । बगदवेदास्सो मुयदि भवं तेण सो मोक्खो ॥ १५३ ॥ १४ संस्कृतछाया. यः संवरेण युक्तो निर्जरन्नथसर्वकर्माणि । व्यपगतवेद्यायुष्को मुञ्चति भवं तेन स मोक्षः ॥ १५३ ॥

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