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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। भावार्थ-जो जीव काल लब्धिपाकर अनादि अविद्याको विनाशकरके यथार्थ पदार्थोंकी प्रतीतिमें प्रवत्र्ते हैं. प्रगट भेदविज्ञान ज्योतिकर कर्तृत्वभोक्तृत्वरूप अंधकारको विनाशकर आत्मीकशक्तिरूप अनन्तस्वाधीन बलसे स्वरूपमें प्रवते है. सो जीव अपने शुद्धस्वरूपको प्राप्त होकर मोक्ष अवस्थाको पाता है। आगे जीवद्रव्यके भेद करते हैं।
एको चेव महप्पा सो दुवियप्पो त्तिलक्खणो होदि । चदु चंकमणो भणिदो पंचग्गगुणप्पधाणो य ॥७१॥ छक्कापक्कमजुत्तो उवउत्तो सत्तभङ्गसम्भावो। अट्ठासओ णवत्थो जीवो दसट्टाणगो भणिदो ॥७२॥
संस्कृतछाया.. एक एव महात्मा स द्विविकल्पस्त्रिलक्षणो भवति । चतुश्चंक्रमणो भणितः पञ्चासगुणप्रधानश्च ।। ७१५ षट्कापक्रमयुक्तः उपयुक्तः सप्तभङ्गसद्भावः।।
अष्टाश्रयो नवार्थो जीवो दशस्थानको भणितः ॥ ७२ ॥ - पदार्थ-[सः जीवः] वह जीवद्रव्य [महात्मा] अविनाशी चैतन्य उपयोगसंयुक्त है इस कारण [एक एव] सामान्य नयसे एक ही है । जो जो जीव है सो चैतन्यस्वरूप है इस कारण जीव एक ही कहा जाता है. वह ही जीवद्रव्य [द्विविकल्पः] ज्ञानोपयोग दर्शनोपयोगके भेदसे दो प्रकार भी कहा जाता है। फिर वह ही जीवद्रव्य [विलक्षणः] कर्मचेतना कर्मफलचेतना ज्ञानचेतना इन तीन भेदोंकर संयुक्त होनेसे तथा उत्पादव्यय धौव्य गुणसंयुक्त होनेसे तीन प्रकार भी [भवति] होता है। फिर वह ही जीबद्रव्य [ चतुश्चंक्रमणो भणितः] चार गतियोंमें परिभ्रमण करता है इस कारण चार प्रकार भी कहा जाता है । फिर वह ही जीव [पञ्चाग्रगुणप्रधानश्च] पांच औदयिकादि भावोंकर संयुक्त है इसकारण पांचप्रकारका भी कहा जाता है. फिर वह ही जीवद्रव्य [षद्कापक्रमयुक्तः] छह दिशावोंमें गमनकरनेवाला है. चार तो दिशायें और एक ऊपर एक नीचा इन छह दिशावोंके भेदसे छहप्रकारका भी है । फिर वही जीव [सप्तभङ्गसद्भावः उपयुक्तः] सप्तभङ्गी वाणीसे साधा जाता है इस कारण सात प्रकारभी कहा जाता है । फिर वही जीव [अष्टाश्रयः] आठ सिद्धोंके गुण अथवा आठकर्मके आश्रय होनेसे आठ प्रकारका भी है । फिर वही जीव [नवार्थः] नव पदार्थोंके भेदोंसे नव प्रकारका भी है। फिर वही जीवद्रव्य [दशस्थानकः] पृथिवीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकाय, प्रत्येक, साधारण, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय इस प्रकार दशभेदोंसे दशप्रकार भी [भणितः] कहा गया है ।