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आदर करते हैं । इसी उदारता की बदौलत आप जैन-शास्त्रों की तरह जैनेतर-शास्त्रों को भी सुनते हैं । और उन को नयदृष्टि से समझ कर सत्य को ग्रहण करने के लिये उत्सुक रहते हैं । इसी समभाव के कारण आपकी रुचि 'योगदर्शन' आदि ग्रन्थों की ओर सविशेष रहती है | विचार की उदारता या परमतसहिष्णुता, एक ऐसा गुण है, जो कहीं से भी सत्य ग्रहण करा देता है । दूसरा गुण आप में ' धर्म-निष्ठा' का है । आप ज्ञान तथा क्रिया दोनों मार्गों को, दो आँखों की तरह, बराबर समझने वाले हैं | केवल ज्ञान रुचि या केवल क्रिया- रुचि तो बहुतों में पाई जाती है | परन्तु ज्ञान और क्रिया, दोनों की रुचि विरलों में ही देखी जाती है ।
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जैन- समाज, इतर- समाजों के मुकाबिले में बहुत छोटा है । परन्तु वह व्यापारी- समाज है । इस लिये जैन लोग हिन्दुस्तान जैसे विशाल देश के हर एक भाग में थोड़े बहुत प्रमाण में फैले हुए | इतना ही नहीं, बल्कि योरोप, आफ्रिका आदि देशान्तरों में भी उन की गति है । परन्तु खेद की बात है कि उचित प्रमाण में उच्च शिक्षा न होने से, कान्फ्रेंस जैसी सब का आपस में मेल तथा परिचय कराने वाली सर्वोपयोगी संस्था में उपस्थित हो कर भाग लेने की रुचि कम होने से तथा तीर्थभ्रमण का यथार्थ उपयोग करने की कुशलता कम होने से, एक प्रान्त के जैन, दूसरे प्रान्त के अपने प्रतिष्ठित साधर्मिक बन्धु तक को बहुत कम जानते - पहिचानते हैं ।
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