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अन्य ग्रंथों से सम्बन्ध है और उक्तियां, उपामायें आदि भी एक सी ही हैं | सम्बोधन के लिये वही 'जोइया' और 'वढ' तथा देहरूपी देवालय और
आत्मा रूपी शिव सभी में हैं। हां, करहा की उपमा, जो प्रस्तुत ग्रंथ में जगह जगह आई है, परमात्मप्रकाश में केवल एक ही जगह .( दोहा २६६ में पाई जाती है।
पाहुडदोहा और सावयधम्मदोहा यद्यपि सावयधम्मदोहा और प्रस्तुत ग्रंथ में विषय की दृष्टि से कुछ भेद है, क्योंकि पूर्वोक्त ग्रंथ गृहस्थों के लिये लिखा गया है और प्रस्तुत ग्रंथ जोगियों के लिये, किन्तु भाषा और शैली दोनों की समान ही है। छोटे मोटे भावों, उपमाओं आदि व उक्तिओं आदि के साम्य के अतिरिक्त दो पूरे दोहे दोनों में समान हैं:--
पाहुड. साचय.
४३ १२९ ' २१५ ३०
पाहुडदोहा और श्रुतसागर श्रुतसागर तथा उनकी पटनामृत टीका का उल्लेख हम सावयधम्मदोहा की भूमिका में कर चुके हैं। इस टीका में पाहुडदोहा के तीन दोहे थोड़े से हेर फेर के साथ उद्धृत पाये जाते हैं । यथा:--