________________
४८
४९
५०
५१
अनुवाद
१७
छोड़ दो ! स्वतन्त्र छोड़ दो ! जहां भावे तहां जाने दो। उसे सिद्धि - महापुरी की ओर वढने दो। कुछ हर्प विषाद मत करो । ( अर्थात् मन जव इन्द्रिय-विषयों से मुक्त हो जाता है तो वह मुक्ति की ओर अग्रसर होता है | )
मन परमेश्वर से मिल गया और परमेश्वर मन से । दोनों समरस हो रहे, पूजा किसे चढाऊं ?
५४
देव की आराधना करता है, परमेश्वर कहां चला गया ? जो शिव सर्वाङ्ग में व्याप्त है उसका विस्मरण कैसे हो गया ?
अहो ! जो पर है वह पर ही है, पर आत्मा नही है । मैं दग्ध हो जाता हूं, वह बच जाता है और फिर लौट कर भी नही देखता । ( अर्थात् जड़ शरीर पर है । इसके दग्ध हो जाने पर आत्मा इससे सर्वथा पृथक् हो जाता है | )
५२ हे मूढ ! यह सब कर्मजंजाल है। निष्कर्म कोई नही है । जीव गया पर उसके साथ कुटी (देह) नही गई। इस को देख |
५३ देहरूपी देवालय में जो शक्तियों सहित देव वास करता है, हे जोगी ! वह शक्तिमान् शिव कौन है ? इस भेद को शीघ्र ढूंढ ।
जो न जीर्ण होता है, न मरता है और न उत्पन्न होता है, जो सब के परे कोई अनन्त, ज्ञानमय, त्रिभुवन का स्वामी है, वही निर्भ्रान्त शिव देव है । .