Book Title: Pahuda Doha
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Balatkaragana Jain Publication Society

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Page 160
________________ ११० पाहुड-दोहा प्रथम दिया हुआ अर्थ ही अधिक उचित है यद्यपि व्याकरण की दृष्टि से द्वितीय अर्थ अधिक अच्छा है क्योंकि प्रथम अर्थ में 'उपलाणहि' का उत्पलानि और 'छोडहि' का मोचयति रूपान्तर शंका के परे नहीं है। . ५५. शिव और शक्ति को ही सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति, वेदान्त में ब्रह्म और माया तथा जैन सिद्धान्त में जीव और अजीव कहा है। ५६. वेदान्त में चित्त या मन की परिभाषा यह पाई जाती है-'संकल्पविकल्पास्मिका वृत्ति मनः' अर्थात् संकल्प विकल्प रूप वृत्ति का ही नाम मन है जिसका मूल अज्ञान है। जन जीव पूर्णतः ध्यानमय या समाधिस्य हो जाता है तब यह संकल्प विकल्प रूप वृत्ति नष्ट हो जाती है अर्थात् मन का लय हो जाता है। ५७. आत्मा के निर्मल होने से जो सर्वज्ञता का उदय होता है उसे ही जैन सिद्धान्त में केवल ज्ञान कहा है। ६३. रिसह अपभ जैनियों के प्रथम तीर्थकर हुए हैं जिन्होने इस युग में ऋपिधर्म चलाया। ६५. 'सयलई धम्म कहतु ' का 'सब धर्मों का व्याग्न्यान करता हुआ ' यह अर्थ भी हो सकता है। इस अर्थ में र्धा से बाह्य सक्रियाओं का अभिप्राय है। अर्थात् जो व्याक्ति

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