Book Title: Pahuda Doha
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Balatkaragana Jain Publication Society

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Page 168
________________ पाइड-दोहा योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त । इनके पक्षकारों में । वहुत काल से वाद विवाद होता रहा है। ११७, इस दोहे का संस्कृत रूपान्तर ऐसा लिया गया हैआत्मन् ! मुक्या एकं परं अन्यो न वैरी कोऽपि । यन विनिर्मितानि कर्माणि यतिः परं स्फेटयति सोऽपि ॥ दूसरी पंक्ति का अन्वय है । येन कर्माणि विनिर्मितानि (तं) परं (यः ) स्फेटयति सोऽपि यतिः । १२६. प्रथम पंक्ति का इस प्रकार भी अनुवाद किया जा सकता है- हे मूर्ख, सिद्धान्त और पुराणों को समझ । समझने वालों के भ्रान्ति नहीं रहती। १२८. इस दोहे का कठोपनिषद् के निम्न पद्य से मिलान कीजिये: अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयंधीराः पण्डितं मन्यमानाः। दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमानायथान्धाः। १२।५. १३६. तात्पर्य यह है कि एकाग्र चित्त से आत्मध्यान में रत रहन बालों के आत्मा में कर्मबन्ध नहीं होता । तथा जो परमार्थ की इन्छा कारता है वह पुण्य-प्रकृतियों के नाश से दुःख नहीं मानता । अर्थात परमार्थ की इच्छा करनेवाला और आत्म. ध्यान में रत रहने वाला पुरुप पापप्रकृतियों के साथ पुण्यप्रकृतियों

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