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८५ हे पण्डितों में श्रेष्ठ पण्डित ! तूने कण को छोड़ तुप को कूटा है। तूं ग्रंथ और उसके अर्थ में संतुष्ट है, किन्तु परमार्थ को नही जानता । इसलिये तूं मूर्ख है ।
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• अनुवाद
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उसकी दृढ रेखा खींच लेना चाहिये, जैसा पढा तैसा करना चाहिये, अथवा इधर उधर भटकना नही चाहिये। ऐसा करने वाले के कर्म आपसे भग्र हो जायगे ।
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व्याख्यान करते हुए बुद्धिमान् ने यदि आत्मा में चित्त नही दिया तो मानो उसने अन्न के कणों से रहित बहुतसा पयाल संग्रह किया ।
जो शब्दाडम्बर का ही गर्व करते हैं वे कारण को नही जानते । वे वंशविहीन डोम के समान दूसरों के हाथ मलते हैं !
हे मूर्ख ! बहुत पढने से क्या ? ज्ञान-तिलिंग ( - अग्निकण ) को सीख जो प्रज्वलित होने पर पुण्य और पाप को क्षणमात्र में जला डालती है।
सभी कोई सिद्धत्व के लिये तड़फड़ाता है । पर सिद्धत्व चित्त के निर्मल होने से ही मिल सकता है ।
८९ जहां वह मल-परिवर्जित, अनादि, केवली स्थित है उसी के उर में समस्त जगत् संचार करता है । उसके परे कोई भी नही जा सकता ।