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९१ हे जोगी ! जोग लेकर यदि तूं फिर धंधे में नही पडेगा तो इस देहरूपी कुटिया का क्षय हो जायगा और तूं उसी प्रकार अक्षय हो जायगा ! (या, तूं जिस कुटिया में रहता है उस देहरूपी कुटी का क्षय हो जायगा ) ।
९२ रे मनरूपी करभ, इन्द्रियविषयों के सुख से रति मत कर | जिनसे निरन्तर सुख नही मिल सकता उन सब को क्षणमात्र में छोड़ ।
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अनुवाद
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जब आत्मा आत्मा में परिस्थित हो जाता है तब उसमें कहीं कोई लेप (मल) नही लगता और उसके जो सव महादोप होते हैं उनका पूर्णतः छेदन हो जाता है ।
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न तोप कर, न रोप कर, न क्रोध कर । क्रोध से धर्म का नाश होता है । धर्म नष्ट होने से नरकगति होती है । इस प्रकार मनुष्य जन्म ही गया
हाथ से अधिष्ठित (?) जो छोटासा देवालय है वहां वाल का भी प्रवेश नहीं हो सकता । संत निरंजन यहीं वसता है । निर्मल होकर ढूंढ ।
मन को सहसा मोड लेने से आत्मा और पर का मेल नहीं हो सकता । किन्तु वह सूर्ख जोगिया क्या करे जिसकी इतनी शक्ति ही नहीं है ?
९६ वही जोग है जो जोगी निर्मल ज्योति को जोहले (देख ले) | किन्तु जो इन्द्रियों के वश में गया वह यहीं श्रावक लोक में है ।