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अनुवाद
४१ जिन कहते हैं वन्दना करो! वन्दना करो! किन्तु यदि
अपने देह में वसने वाले का परमार्थ जान लिया तो,
भला, यहां किस की वन्दना करना शेप रहा? ४२ जिस प्रकार कमलों को देखकर गजकुमार अपने वन्धन
को छुड़ाकर विचरण करने लगते हैं, तैसे ही जिसका मन अक्षयिनी रामा (मुक्ति-स्त्री) पर गया वह विद्वान्
जगत् में कैसे रति कर सकता है ? ४३ इन्द्रियों के सम्बन्ध में ढीला मत हो। पांच में से दो
का निवारण कर। एक जीभ को रोक और दूसरी
पराई नार। ४४ तूने न तो पांच चैलों को रखाया और न नन्दन वन में
प्रवेश किया। न अपने को जाना और न पर को। यों ही परिव्राजक बन गया है। (यहां पांच बैलों से पांच
इंन्द्रियों तथा नन्दन वन से आत्मा का तात्पर्य है।) ४५ हे सखि ! प्रियतम को वाहिर पांच का नेह लगा हुआ
है। जो खल दूसरे से मिला हुआ है उसका आगमन भी नहीं दिखता। (अर्थात् जब तक इन्द्रियों में मोह फंसा हुआ है तब तक आत्मानन्द का अनुभव नही हो सकता।) जव मन निश्चिन्त सो जाता है तभी वह उपदेश को समझता है। और निश्चिन्त वही होता है जो अचित् से चित्त को अलग कर लेता है। जो मार्ग पर लगे हुए हैं, और आगे देख कर चलते हैं, उनके पैर में यदि कांटा लग जाय तो लग जावे । इसमें उनका दोप नही।
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