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अनुवाद
१३ जरा और मरण दोनों देह के हैं, और देह ही के विचित्र वर्ण हैं। हे मित्र! देह ही के रोग और देह ही के लिंग जानो। न तो दोनों जरा मरण है, न रोग, लिंग व वर्ण हैं । हे आत्मन् ! यह तूं निश्चय से जान कि जीव के इन में से एक भी नहीं है।
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३६ कर्मों के भाव को ही यदि तूं आत्मा कहता है तो फिर
तूं परम पद को नही पा सकता, अभी और भी संसार
का भ्रमण करेगा। ३७ ज्ञानमय आत्मा के अतिरिक्त और भाव पराया है। उसे
छोड़कर, हे जीव ! तूं शुद्ध स्वभाव का ध्यान कर। ३८ जो वर्णविहीन है, ज्ञानमय है, सद्भाव को भाता है,
जो संत और निरंजन है, वही शिव है। उसी में अनुराग करना चाहिये। त्रिभुवन में जिन देव दिखता है और जिनवर में यह त्रिभुवन। जिनवर में सकल जगत् दृष्टिगोचर होता है। इनमें कोई भेद न करना चाहिये। जिन कहते हैं जानो! जानो! किन्तु यदि ज्ञानमय मात्मा को देह से विभिन्न जान लिया तो, भला, और अन्य क्या जानने को रहा ?
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