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अनुवाद
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२७ न तो तूं पंडित है न मूर्ख, न ईश्वर है न अनीश, न गुरु
है और न कोई शिप्य। सब में कर्म की विशेषता है। (अर्थात् आत्मा सव जीवों का एक रूप है, केवल अपने अपने कर्मानुसार सब जीव भिन्न भिन्न परिस्थिति में दिखाई देते हैं)। न तो तूं कारण है न कार्य, न स्वामी है न भृत्य, न सूर है न कायर। हे जीव ! न तूं उत्तम है न नीच। न पुण्य, न पाप, न काल, न नभ, न धर्म, न अधर्म और न काय । हे जीव तू, चेतन भाव को छोडकर, इनमें से कोई एक भी नहीं है। (अर्थात् आत्मा चैतन्य स्वभाव वाला है। पुण्य पाप इत्यादि जो जड भाव है उन से वह सर्वथा भिन्न है)। न तूं गोरा है न साँवला, न एक भी वर्ण का है। न तू दुर्वलाङ्ग है, न स्थूल। अपने स्वरूप को ऐसा जान । (अर्थात् वर्ण और दुर्वलता व मोटापन आदि गुण जड
शरीर के हैं, चिदानन्द आत्मा के नही)। ३१ न में श्रेष्ठ ब्राह्मण है, न वैश्य हं, न क्षत्रिय हूं, न शेष .
(शद्र) हूं, और न पुरुष, नपुंसक या स्त्री हूं। ऐसा विशेष जान। (अर्थात् शुद्ध आत्मा में वर्णभेद और लिङ्गभेद नहीं है। मैं तरुण हं, बूढा हूं, वाल हं, सूर हूं, दिव्य पंडित हूं या क्षपणक (दिगम्वर), बंदक (मंदिरमार्गी?) या
श्वेताम्बर हूं। इस सव की चिंता मत कर। ३३ हे जीव ! देह का जरा-मरण देखकर भय मत खा। जो
अजरामर, परम ब्रह्म है उसे ही अपना मान ।
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