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६ जीवके धर्म तथा गुण
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चुके हैं। अतः अनन्त काल पर्यन्त वे अनन्त प्रकाश द्वारा अनन्त विश्वको निष्कम्प रूपसे बराबर जानते तथा देखते रहते है, और उस प्रकाश द्वारा प्राप्त आनन्दका निष्कम्प रीतिसे उपभोग करते रहते हैं । धन्य है उनका अनुल वोर्य । यही सच्चा वोर्य है। २१. अनुभव-श्रद्धा तया रुचिमे भेद
अनुथव, श्रद्धा तथा रुचि भी दो प्रकारकी होती है-लौकिक तथा अलौकिक । लौकिक अनुभवादि दो-दो प्रकारके हैं-बाह्य तथा अन्तरग । 'यह शरीर ही मैं हूँ, इसका सुख-दुख ही मेरा सुखदु.ख है, धन-कुटुम्बादि बाह्य पदार्थ ही मेरे लिए इष्ट हैं', इत्यादि प्रकारके अनुभवादि तो बाह्य हैं, और विषयभोग सम्बन्धी यह जो सुख तथा हर्ष अन्दरमे हो रहा है 'यह मेरा सुख है' तथा अतरग मे यह जो शोक हो रहा है 'यही मेरा दुख है', ये अन्तरग अनुभवादि हैं । ये दोनो ही अनुभवादि लौकिक हैं।
अलौकिक अनुभवादि एक ही प्रकार है। ज्ञाता-द्रष्टा बनकर स्थित रहना, मनकी चचलताको रोककर ज्ञानका निष्कम्प रहना, ज्ञानका ज्ञान प्रकाशमे ही मग्न रहना रूप जो आनन्द है वही मेरा है, इसके अतिरिक्त मुझे कुछ नही चाहिए', इस प्रकारका अनुभव, श्रद्धा तथा रुचि अलौकिक हैं। ये उन ज्ञानी-जनोको ही होते है जो कि ससारकी पोलको पहचानकर आत्म-कल्याणके प्रति अग्रसर हुए हैं। इनके अतिरिक्त अलौकिक जो मुक्त जीव है उन्हे तो होते ही हैं।
२२. कषाय
ज्ञान आदि पूर्वोक्त गुणोके अतिरिक्त जीवोमे क्रोधादि मलिन भाव भी सर्व-प्रत्यक्ष हैं। ऐसे मलिन भावोको कषाय कहते हैं।
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