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पदार्थ विज्ञान
होता है। उसकी गध अर्थात् श्रद्धा भी स्वतन्त्र, उज्ज्वल, निगकुल, तथा नि.स्वार्थ होती है और उसका रूप-रंग अर्थात् रुचि भी उज्ज्दल, पवित्र तथा नि स्वार्थ होती है। अन्त करण युक्त चेतनका सुख विकार सहित तथा शरीर इन्द्रिय व विपयोके आधीन हो जानेके कारण परतन्त्र है इच्छाओ तथा कपायोसे मलिन हो जानेके कारण मलिन व अपवित्र है, तथा मनकी चचलताके कारण काकुल है। इस प्रकार विकारी होनेके कारण जीवका स्पर्श अर्थात् सुख परतन्त्र, मलिन तथा व्याकुल होता है। इसी प्रकार उसका स्वाद अर्थात् अनुभव भी परतन्त्र, मलिन, अपवित्र तथा व्याकुल है, उसकी गन्ध अर्थात् श्रद्धा भी परतन्त्र, मलिन, अपवित्र व स्वार्थपूर्ण है और उसका रूप-रग अर्थात् रुचि भी परतन्त्र, मलिन, अपवित्र तथा स्वार्थपूर्ण है।
इस प्रकार स्वभाव तथा विकारका अर्थ सर्वत्र समझना । ज्ञान, दर्शन व वोर्य ये गुण ढक तो जाते है पर विकारी नहीं होते। दूसरी ओर सुख, अनुभव, श्रद्धा व रुचि ये गुण ढकते नही पर विकारी हो जाते हैं। चेतनके जो अलौकिक केवलज्ञान, केवलदर्शन हैं वे निरावरण है और शेष जो मति आदि चार ज्ञान तथा चक्षु आदि दर्शन हैं वे सावरण है। चेतनके जो अलौकिक आनन्द, अनुभव, श्रद्धा व रुचि हैं वे स्वाभाविक हैं और अन्त करण युक्त जीवोंके लौकिक सुख, दुख, अनुभव, श्रद्धा तथा रुचि हैं वे विकारी है। समस्त ही कषाय-भाव विकारी है। आवरण तथा विकारमे स्थिति ही अधर्म है और स्वभावमे स्थितिका नाम धर्म है। २६. चेतनके गुण
इस प्रकार स्वभाव व विकारको जान लेनेके पश्चात् अव जीवके पूर्वोक्त सर्व गुणोका विश्लेषण करके, यह भी जान लेना