Book Title: Padartha Vigyana
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 225
________________ ९ आकाश द्रव्य २०९ अनन्त तक व्याप्त है । इसका कही भी अन्त नही है । वायुका अन्त है, इस नील गगनका भी कही अन्त है, पुद्गल पदार्थोंका भी कही अन्त है पर आकाशका कही अन्त नही है । इसलिए इसे व्यापक कहा जाता है । ३ श्राकाश नित्य है आकाश नित्य है । वह सर्वदा ऐसाका ऐसा ही रहा है और ऐसा का ऐसा ही रहेगा । यह न कभी नया ऊत्पन्न होता है और न कभी विनष्ट होता है । जो भी व्यक्ति जब कभी भी पृथिवीपर जन्म धारण करता आया है, इस आकाशको ज्योका त्यो देखता आया है । वायुमण्डल बदल गया यह ठीक है; देश, नगर, नदी, सागर, पर्वत बदल गये यह ठीक है, परन्तु आकाश स्वयं वहका वह है, और इसी प्रकार आगे भी रहनेवाला है । जिस प्रकार अन्त करण तथा शरीरसे मिलकर 'जीवपदार्थ ' चित्र-विचित्र पर्यायो या अवस्थाओको अथवा नामरूप कर्मोंको प्राप्त होता है, जिस प्रकार पुद्गल पदार्थ अनेक स्कन्धोके रूपमे चित्र - विचित्र पर्यायो या अवस्थाओको अथवा अनेको जातियो तथा रूपोको प्राप्त होता है, उस प्रकार आकाश कदापि नही हो सकता, न ही आज तक हुआ है और न आगे होगा । जैसा पहले था वैसा ही अब है, ओर जैसा अब है वैसा ही आगे रहेगा । इसलिए यह नित्य है । ४. आकाश निर्लेप है भले ही इसमे जीव, पुद्गल, परमाणु, स्कन्ध, वायु, पृथिवी, अग्नि आदि सब कुछ रहते हो परन्तु कोई भी इसको स्पर्श नही करता । पृथिवी, सूर्य, चन्द्र आदि ही घूमते है, यह नही घूमता । सूर्य, चन्द्र आदि ढके जाकर ग्रहणको प्राप्त होते हैं पर आकाश १४

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