Book Title: Padartha Vigyana
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 264
________________ २४८ पदार्थ विज्ञान तथा अधर्मकी सीमा प्राप्त हो जानेपर यह पुनः दु.खसे सुखकी ओर जाने लगेगा । तब धीरे-धीरे दु खकी हानि और सुखकी वृद्धि होने लगेगी । इस प्रकार काल सत्युगका अन्त प्राप्त हो जानेपर कलियुग की ओर और कलियुगका अन्त प्राप्त हो जानेपर पुन. सत्युग की ओर बराबर चलता रहता है । इसे ही कालचक्र कहते हैं, जो अनादि कालसे चला आ रहा है, और सदा चलता रहेगा । इसके कारण ही पृथिवीपर सुखसे दुख और दुखसे सुख रूप परिवर्तन होता रहता है । जैन दर्शन कारोने इस कालचक्रको किसी अन्य भांति कल्पित किया है। पूरे कालचक्रको दो भागोमे विभाजित कर दिया है - एक नीचेसे ऊपर अर्थात् दुःखसे सुखकी ओर जानेवाला और दूसरा ऊपरसे नीचे आनेवाला अर्थात् सुखसे दुःखको ओर आनेवाला । जिस प्रकार गाड़ीका पहिया घूमता रहता है, अर्थात् पहिये के नीचेवाला अरा पहले ऊपर आता है और ऊपरसे नीचे जाकर फिर वही पहुंच जाता है जहाँसे कि वह चला था, इसी प्रकार कालका पहिया भी बराबर घूमता रहता है। जिस प्रकार पहिये के एक पूरे चक्करमे वह भरा दो दिशाओमे गमन करता है, पहले नीचेसे ऊपर फिर ऊपर से नीचे, और इस प्रकार उसका एक पूरा चक्कर दो भागो मे विभाजित किया जा सकता है। उसी प्रकार काल रूपी पहिये का पूरा चक्कर भी दो भागोमे विभाजित कर दिया गया है । सुखसे दु.खकी दिशा मे जानेवाला अवसर्पिणी और दुखसे मुखकी दिशामे जानेवाला भाग उत्सर्पिणी कहलाता है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणो यह दोनो मिलकर एक पूरा काल चक्र बनता है । इन दोनोको पृथक् पृथक् कल्प कहते हैं । दोनो कल्पोके जोडेको अर्थात् पूरे चक्करको एक युग कहते हैं, क्योकि युगका अर्थ जोड़ा होता है ।

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