Book Title: Padartha Vigyana
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 263
________________ ११ काल पदार्थ २४७ बिना किसी पक्षपातके बराबर अपना काम कर रहा है, अपने स्वभावको निभा रहा है, प्रत्येक पदार्थको उसके परिवर्तनमे सहायता दे रहा है। यदि काल न हो तो सर्वलोक चित्र-लिखितवत् कूटस्थ हो जाय, लोकका यह सर्व सौन्दर्य तथा स्फूर्ति दृष्टिगत न हो। अत. काल, बडा सुन्दर है, यह भय खानेकी वस्तु नही उपासना करनेकी है। ६ काल चक्र __ व्यवहार कालको समष्टि रूपसे भी देखा जा सकता है, जिसमे कि युगो तथा कल्पोकी कल्पना समावेश पाती है। वैदिक मान्यताके अनुसार सत्युग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग ये चार कल्पकाल है। चारो युगोकी यह कल्पना समष्टिमे सुख तथा धर्मकी क्रमिक हानि व वृद्धिके आधार पर की जाती है। प्रत्येक युग लाखो करीडो अरबो वर्षोंका होता है। जिस युगमे पृथ्वीपर सुख तथा धर्मका सर्वत्र प्रसार हो वह सत्-युग कहलाता है। जब इस सुख तथा धर्ममे कुछ कमी पड जाती है, तब उसे त्रेता-युग कहते हैं। जिस युगमे पृथ्वीपर सुखके साथ दु ख और धर्मके साथ अधर्म साथ-साथ रहते हैं उसे द्वापर-युग कहते हैं। और जिस युगमे पृथ्वीपर केवल दु.ख तथा अधर्मका साम्राज्य ही प्रमुखत. रहता है, उसे कलि-युग कहते हैं। वर्तमानमे पृथ्वीपर कलियुगका राज्य है। __ सुख तथा धर्मका यह परिवर्तन भी समष्टिमे काल शब्द द्वारा कहा जाता है । यह काल कभी सुखसे दुखकी ओर और कभी दु खसे सुखकी ओर चलता है। सत्युगसे चलकर कलियुग तक आनेवाला वर्तमान काल सुखसे दुखकी तरफ चलनेवाला कहा जायेगा। सत्युगमे बहुत अधिक सुख था, जो धीरे-धीरे घटते-घटते अब दुख रूप हो गया है। कलियुगका अन्त प्राप्त हो जानेपर अर्थात् दु.ख

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