Book Title: Padartha Vigyana
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 251
________________ १० धर्म-अधर्म पदार्थ २३५ नहीं हो रहे है इतना समझते रहना, क्योकि पदार्थ-विज्ञानका प्रकरण चल रहा है । धर्म और अधर्म ये दोनो यहाँ विशेष प्रकारके द्रव्य स्वीकार किये गये हैं जो यद्यपि अमूर्तिक हैं परन्तु अपनी कुछ लम्बाई, चौडाई, मोटाई रखते है, जैसे कि जीव पदार्थ । इन दोनोका आकार जीव पदार्थकी भांति लोककाश जितना मनुष्याकार है। अत. इनके प्रदेशोकी गणना भी लोककाशके समान असख्यात है। जीव पादार्थ, लोकाकाश, धर्म तथा अधर्म इन चारोंके प्रदेश व आकार समान हैं। अन्तर केवल इतना है कि लोकाकाश कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, केवल अखण्ड व्यापक अनन्त आकाशका एक कल्पित भाग मात्र है, और शेष तीन पदार्थ अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं । तिनमे भी जीव तो सोच-विस्तारके कारण अपने पूरे लोकाकाश प्रमाण आकारको कदाचित् ही दर्शाता है अन्यथा छोटे-बड़े चित्र-विचित्र प्रकारके आकारोवाले शरीरोमे ही रहता है, परन्तु धर्म तथा अधर्म तीनो कालोमे आकाशवत् लोकाकाशमे व्यापकर रहते हैं। ये न सिकुडते है न विस्तार पाते हैं, सदा लोकाकाशके समान पुरुषाकार रूपमे स्थित रहते हैं । ये दोनो पदार्थ लोकाकाश प्रमाण असख्यात-प्रदेशी है। ३ धर्म-प्रधर्म द्रव्यका कार्य यह दोनो ही पदार्थ जोव तथा पुद्गलको मात्र सहायक ही होते है, अपना कोई स्वतन्त्र कार्य नही करते । जीव तथा पुद्गल ये दोनो जो इस लोकाकाशमे इधरसे उधर और उधरसे इधर घूमते-फिरते है, उसमे इन्ही दोनो पदार्थोका उपकार है । जीव तथा पुद्गल जब जहाँ चाहे चले जायें और जव जहाँ चाहे रुक जायें, ऐसे इनमे दो प्रकारका कार्य देखा जाता है-चलनेका तथा मकने का। चलनेके कार्यमे भी दो बातें है-स्थूल तथा सूक्ष्म । न्यूल चलना तो सबको दिखाई देता है कि पदार्थ एक स्थानसे हटकर

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