Book Title: Padartha Vigyana
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 239
________________ ९ आकाश द्रव्य २२३ इसलिए ऊपरके कथनसे भ्रम मे न पडना । लोकके आकारमे पाँववाले निचले भागमे अधिक प्रदेश है और नाभिस्थलपर कम हैं, क्योकि नीचे यह फैला हुआ है और बीचमे सिकुडकर छोटा हो जाता है । परन्तु फिर भी नीचेवाली तहमे असख्यात ही प्रदेश हैं और बोचके भागमे भी । सारी तहोको मिलानेपर भी असख्यात ही प्रदेश हैं । इतना ही नही, सूई की नोक जितने आकाशमे भी असख्यात ही प्रदेश हैं, सूक्ष्म जीवके शरीर जितने आकाशमे तथा हाथी - जैसे जीवके शरीर जितने आकाशमे भी असख्यात ही प्रदेश कहे जाते हैं । वहाँ अपनी बुद्धिसे यथायोग्य छोटा-बड़ा असंख्यात जान लेना । असख्यात कह देनेसे सब बराबर नही हो जायेंगे । बडा-बड़ा ही रहेगा और छोटा छोटा ही । कहनेमे न आवे तो अन्य कोई उपाय नही । इसीसे सर्वत्र असख्यात कह दिया जाता है । परन्तु अभ्यास हो जानेपर तथा आकार आदिका ठीक-ठीक बोध हो जानेपर स्वन. उस असख्यातकी गणनामे होनाधिकता दिखाई देने लग जाती है । क्योकि लोक असख्यात - प्रदेशी है इसलिए इसमे रहनेवाला कोई भी पदार्थ असख्यात प्रदेशसे अधिक नही हो सकता । अतः लोकके सर्व ही छोटे-बडे जीवोको तथा पुद्गल स्कन्धोको असख्यात प्रदेशवाला ठीक ही कहा गया है । जीव पूराका पूरा फैल जानेपर जब सम्पूर्ण लोकमे व्याप्त हो जाता है तब उसका आकार लोकाकाश जितना होता है । इससे अधिक फैलना उसके लिए असम्भव है इसलिए उसे लोक प्रमाण असख्यात प्रदेशी कहा गया है । सिकुडकर छोटे-बडे शरीरोमे रहनेपर उतने ही आकाश जितना हीनाधिक असख्यात प्रदेशवाला कहा जाता है । उस अवस्थामे मूल प्रदेश लोक प्रमाण रहते हुए भी सिकुड जानेके कारण शरोरके आकारको अपेक्षा वह थोडे असख्यात प्रदेशवाला कहा जाता है ।

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