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८ पुद्गल-पदार्थ
१८९ क्योकि सूक्ष्मसे सूक्ष्म भो काय अनन्त परमाणुओके मिलनेसे बनती है।
_परमाणु है इस बातकी सिद्धि जिस प्रकार उसके कार्योपर-से होती है अर्थात् उन पदार्थोपर-से होती है जो कि उसके सघात या मिलापसे उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार उसके मुर्तिकपनेकी सिद्धि भी इन पदार्थोपर-से ही होती है। मूर्तिक पदार्थोके मिलनेसे ही मूर्तिक पदार्थ बन सकता है, अमूर्तिकसे नहीं। मूर्तिक पदार्थ उसे कहते हैं जिसमे इन्द्रियोसे ग्रहण किये जाने योग्य गुण पाये जायें अर्थात् जिसमे स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण पाया जायें। क्योकि सर्व दृष्ट पदार्थोंमे ये गुण पाये जाते हैं, इसलिए उनके मूल उस परमाणुमे भी वे अवश्य होने चाहिए । यदि परमाणु मे वे गुण न होते तो उनके मिलने पर भी वे गुण प्रकट न हो पाते । जैसे लोहेमे पीलापन नहीं है, अत. बहुत सारे लोहेको गलाकर एक पिण्ड बना देने पर भी उसमे पीलापन नही आ सकता। इस प्रकार तर्कसे परमाणुके मूर्तिकपनेकी सिद्धि की जा सकती है, अन्य कोई उपाय नही है।
८ परमाणुवादका समन्वय ___ इस परमाणुवादके सम्बन्धमे अनेको मत हैं। वैशेषिक दर्शनकार पृथिवी आदि चारो भूतोके लिए पथक्-पृथक् जातियोंके परमाणुओकी कल्पना करते है । उस-उस जातिके परमाणुओसे वही तत्त्व बनता है। प्रत्येकमे गुण भी पृथक्-पृथक् मानते हैं । यथापार्थिव परमाणुमे केवल गन्ध गुण, जलीय परमाणुमे केवल रस गुण, अग्निके परमाणुमे केवल रूप गुण और वायुके परमाणुमे केवल स्पर्श गुण है। दृष्ट शुद्ध-पृथिवी आदिमे जो चारो गुण प्रतीत होते हैं, उसका कारण यह है कि वे वास्तवमे शुद्ध पृथिवी आदि नहीं हैं। प्रत्येकमे चारो जातिके परमाणु है। उनके तारतम्यके कारण हा