Book Title: Om Namo Siddham
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Bramhanand Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ महत्त्व, प्रयोजन और फल मंत्र का महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि - मंत्र संसारसार त्रिजगदनुपर्म सर्व पापारिमंत्र । संसारोच्छेदमंत्र विषमविषहरं कर्मनिर्मूलमंत्र ॥ मंत्र सिद्धि प्रदान शिव सुख जननं केवलज्ञानमंत्र। मंत्र श्री जैन मंत्र जप जप जपितं जन्मनिर्वाणमंत्र । अर्थात् यह मंत्र संसार में सारभूत है, तीनों लोकों में इसकी तुलना के योग्य दूसरा कोई मंत्र नहीं है, यह समस्त पापों का शत्रु है, संसार का उच्छेद करने वाला है, भयंकर से भयंकर विष को हर लेता है, कर्मों को जड़ मूल से नष्ट कर देता है, सिद्धि मुक्ति का दाता है, मोक्ष सुख को और केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाला है, अतः इस मंत्र को बार-बार जपो क्योंकि यह जन्म परम्परा को समाप्त कर देता है। मंत्र देवों की विभूति को आकृष्ट करता है अर्थात् जो इसका जप करता है उसे देवगति की प्राप्ति तो सहज होती है, ॐ नम: सिद्धम् का भाव तो विशुद्ध स्वानुभूतिमय है, जिसमें रम जाने से समस्त कर्मों का क्षय और मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। चारोंगतियों में होने वाली विपत्तियों,दुःखों का सर्वथा सर्वप्रकारेण अभाव हो जाता है। ___ मंत्र जप के प्रयोजन के अनुसार उसका परिणाम अर्थात् फल भी मिलता है। जैसे-ॐ नमः सिद्धम् मंत्र अपने सिद्ध स्वरूप की अनुभूति को सिद्ध कराने के लिए महामंत्र है। जब इस प्रयोजन से इसका स्मरण ध्यान करें तो उस रूप फल भी प्राप्त होगा। सामान्यतया मंत्र जप के दो फल हैं- एक तात्कालिक फल और दूसरा कालान्तर भावी फल। मंत्र स्मरण ध्यान से ज्ञानावरणादि कर्म का क्षय होता है और मंगलमय स्वरूप की प्राप्ति होती है, यह तो तात्कालिक फल है। कालान्तर भावी फल इस लोक और परलोक की अपेक्षा से दो प्रकार का है- इस लोक में मंत्र आराधन से सर्व मनोरथ की पूर्ति, मानसिक शांति स्वास्थ्य लाभ, आदि इहलौकिक फल हैं। उच्चकुल की प्राप्ति, स्वर्ग और मुक्ति यह सब पारलौकिक फल हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि फल मिलता कैसे है? क्या अरिहंत सिद्धों को नमस्कार करने से प्रसन्न होकर वे फल देते हैं? इसका समाधान यह है कि ऐसा संभव नहीं है क्योंकि अरिहन्त, सिद्ध परमात्मा वीतरागी होते हैं। किसी के नमस्कार करने से वे उस पर प्रसन्न नहीं होते और किसी के नमस्कार न करने से वे उस पर अप्रसन्न नहीं होते । वे तो पूर्ण वीतरागी परमात्मा हैं। वस्तुत: नमस्कार का वास्तविक फल तो मोक्ष ही है। जैसा कि तत्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण में आप्त (परमात्म देव) के गुणों को प्राप्त करने के प्रयोजन से परमात्मा सच्चे देव की वंदना की गई है यथा मोक्ष मार्गस्य नेतार, भेत्तारं कर्म भू भृताम। शातारं विश्व तत्वाना, वन्दे तद्गुण लब्धये ॥ मोक्षमार्ग के नेता, कर्मरूपी पर्वतों के भेदन करने वाले, विश्व के समस्त तत्त्वों को जानने वाले आप्त (सच्चे देव, परमात्मा) को उनके गुणों की प्राप्ति के लिए मैं नमस्कार करता हूं। इस प्रकार मंत्र के द्वारा भी परमात्मा को नमस्कार करने का प्रयोजन स्वयं उन जैसे होना ही है। ॐ नमः सिद्धम् मंत्र में सिद्ध स्वभाव की स्वानुभूति सहित वंदना की गई है। सिद्ध परमात्मा के समान अपने आत्म स्वभाव की अनुभूति ही ॐ नमः सिद्धम् है। जिसका सीधा प्रयोजन सिद्ध मुक्त होना है। मोक्ष, आत्मा की ही अवस्था विशेष है अत: उसे कोई दूसरा दे नहीं सकता, सिद्धि मुक्ति तो अपने ही प्रयत्न और पुरुषार्थ से मिलती है। रहा आनुषंगिक फल स्वर्ग आदि वह भी कोई किसी को देता नहीं है, वह जीव को अपने-अपने पूर्वोपार्जित शुभ-अशुभ कर्मों से मिलता है। यदि जिनेन्द्र भगवान सिद्ध परमात्मा या कोई देव रुष्ट होकर किसी का पुण्य छीन लें और पाप उसे दे दें अथवा किसी से प्रसन्न होकर उसे पुण्य सौंप दें और पाप ले लें तो किए हुए कर्म के नाश का और बिना किए हुए कर्म की प्राप्ति का प्रसंग उपस्थित हो जाएगा। सामायिक द्वात्रिंशतिका में आचार्य अमितगति महाराज ने लिखा है स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटम, स्वयं कृतं कर्म निरर्थक तदा ॥ अर्थात् जीव ने पूर्व में जो स्वयं ही शुभाशुभ कर्म उपार्जित किए हैं उन कर्मों का ही फल भोगता है। यह सुख-दु:ख, शुभाशुभ कर्म यदि दूसरे के द्वारा दिया हुआ माना जाए कि दूसरे के दिए हुए कर्मों का जीव, फल भोगता है तो स्वकृत कर्म निरर्थक हो जायेंगे अत: सुख-दुःख का कारण अपना ही कर्म है, ११

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100