Book Title: Om Namo Siddham
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 95
________________ करि तोड़न को सूल, भूल मति दाव भला तै पायो । भ्रमते भ्रमते भवसागर सों, मानुषगति में आयो || याहि गति सों भये तीर्थंकर, केवल ज्ञान उपायो । सूरत जानि दांव मति चूकै, यह सत्गुरु फरमायो ॥ ४९ ॥ बबा विसन कुविसन हैं, विसन वेग तू त्याग । करि पांचों इंद्रियां, शुभ कारज को लाग ॥ ५० ॥ शुभ कारज को लाग, त्यागकर विसन सात ये भारी । जुआ आमिष सुरापान, अरु आखेटक दुखकारी ॥ परधन चोरी अरु वेश्यातन, त्याग करो पर नारी । सूरत इस भव में सुख पावै, परभव सुख अधिकारी ॥ ५१ ॥ भभा भूल्यो ही फिरै, भ्रम्यो महा मिथ्यात । भेद न पायो ज्ञान को, तातैं आवत जात ॥ ५२ ॥ तातें आवत जात, बात सुन भेदज्ञान नहिं पाया । क्रोध मान लोभ अरु माया, इनसों नेह लगाया ॥ परमारथ की रीति न जानी, स्वास्थ देख भुलाया । सूरत भेदज्ञान जिन जानो, तिन मिथ्यात मिटाया ॥ ५३ ॥ ममा मति तिनकी सही, तिन मल कीनो दूर । मतवाले मद सूं भरे, तिनकों नाहिं सहूर ॥ ५४ ॥ तिनकों नाहिं सहूर दूर हैं कुमती कुमति विचारै । तिनके कुगुरु तिन्हें समझावें, पकड़े भव जल डारे ॥ पुण्य पाप को भेद न जानै, जीव अनाहक मारै । सूरत ते नर पड़े कुसंगति, किस विधि दोष निवारै ॥ ५५ ॥ या अयान बड़ो बुरो, यामें होय अकाज । यह ममता में फंस रह्यो, याहि न आवे लाज ॥ ५६ ॥ १६८ याहि न आवे लाज, आज सुन कह तेरो यहां को है। तात मात बांधव सुत कामिनि, तू इनके संग मोहै ॥ आठों याम मगन है इनमें यह तुमको नहिं सोहै । . सूरत तजि अज्ञान स्यानपन, तब शिवपुर सुख सोहै ॥ ५७ ॥ ररा राव अनादि को, रच विषयन सों प्रीत । रस चाख्यो नहिं आतमी, लखी न रस की रीत ॥ ५८ ॥ लखी न रस की रीत, मीत तैं विषयनि संग सुख माना । आतमीक रस है सुखदायक, सो तैं नहीं पिछाना || जिन रस रीति लखी आतम की, सो शिवपुर के राना। सूरत वे भवि मुक्ति गए हैं, जिन आतम हित ठाना ॥ ५९ ॥ लला लिपट्यो ही रहै, लग्यो जगत के भेक । लख्यो न आप सरूप को, लह्यो न शुद्ध विवेक ॥ ६० ॥ लह्यो न शुद्ध विवेक, एक तैं पर आपा नहिं बूझा। वस्तु पराई लखी न भाई, तातें रह्यो अरूझा ॥ वस्तु विनासी नहीं प्रकाशी, तू कर्मन संग जूझा । सूरत वे भव पार भये हैं, जिनको आतम सूझा ॥ ६१॥ ववा वह संगति बुरी, जामें होय कुभाव । साधन की संगति भली, जामें सहज सुभाव ॥ ६२ ॥ जामें सहज सुभाव भाव है, सो शैली मोहि प्यारी । तत्त्व दरब की चर्चा तिनकै, तजै कुचर्चा भारी | भरम भावतें दूर रहत हैं, धर्म ध्यान की त्यारी । सूरत यह बांछा मन मेरे, उन मित्रन सों यारी ॥ ६३ ॥ ससा सोई सुघर है, सुनै सुगुरु की सीख । सदा रहै शुभ ध्यान में, सही जैन की ठीक ॥ ६४ ॥ १६९

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