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ॐकार की महिमा और बारहखड़ी जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि संसार में प्रचलित सभी धर्म, मत और ग्रंथों में 'ॐ' मंत्र को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया गया है। जैन ग्रंथों में ॐकार की महिमा सर्वत्र स्वीकार की गई है। योगानुशीलन नामक ग्रंथ में यह उल्लेख मिलता है कि इंद्र, वरुण आदि वैदिक देवों और ऋषियों को 'ॐ' के द्वारा ही अध्यात्म विद्या का लाभ हुआ। अनेक स्थल ऐसे हैं, जहां बारहखड़ी का प्रारंभ 'ॐ' से किया गया है। 'ॐ नमः सिद्धम्' मंत्र में सबसे पहले 'ॐ' है।
दिगम्बर जैन मंदिर वैदवाड़ा, दिल्ली में ३०० वर्ष प्राचीन एक हस्तलिखित प्रति का प्रारंभ 'ॐ' से हुआ है।
ॐकार उच्चार करि ध्यावत मुनिगण सोई।
तामें गर्भित पंचगुरु नित पद वंदों सोई॥ अर्थ- ॐकार का उच्चारण कर मुनिगण उसी का ध्यान करते हैं, इस ॐकार में पंचगुरु अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु गर्भित हैं अर्थात् ॐकार के उच्चारण से उनके पदों का बोध होता है, मैं उनके गुणों की वंदना करता हूं।
ॐकार विन्दुसंयुक्त, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ।
कामदं मोक्षदं चैव, ॐकाराय नमो नमः ॥ अर्थ-विन्दु संयुक्त ॐकार का योगीजन नित्य ध्यान करते हैं, काम अर्थात् मनोवांछित फल और मोक्षदायक ॐकार को बारंबार नमस्कार हो । यहां नित्य शब्द से ॐकार की नित्यता का बोध होता है।
ॐकार के प्रति नमन करने का भाव इस श्लोक के द्वारा प्राय: सभी धर्मों के लोग स्वीकार करते हैं, जैन धर्मावलंबियों को तो यह मंत्र कंठ में स्थित रहता है। प्रत्येक मंगलकारी कार्य प्रारंभ करने से पूर्व और शास्त्र सभा के प्रारंभ में इसको पढ़ा जाता है। तारण तरण जैन समाज की भाव पूजा (मंदिर विधि) के अंतर्गत ॐकार मंत्र का वाचन करते हुए भी यह श्लोक भक्ति भाव से पढ़ा जाता है।
'ॐ' मंत्र के आराधन की प्रेरणा देते हुए तथा उसकी विशेषता बताते हुए श्री नवलशाह ने वर्द्धमान पुराण में लिखा है
प्रणमि मंत्र सुमरों फिर चित्त, ॐकार जो परम पवित्र । दु:ख दावानल जो मेह, ज्ञानदीप पहुंचन को गेह॥ परमेठी सम इह को जान, बीचकबीच तने उनमान । उदय सुकंज करणीक रहे, स्वर व्यंजन वेष्टित लहलहै॥ अर्थ- मंत्र को प्रणाम कर चित्त में परम पवित्र 'ॐ' का स्मरण करो। यह
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मंत्र दु:ख रूपी दावानल के लिये मेह के समान है, ज्ञानरूपी दीपक को जलाने के लिए घर के समान है, पंच परमेष्ठी के समान इसको समझो, इसका हृदय रूपी कमल पर ध्यान करो जिसकी पत्तियां स्वर और व्यंजन से लहलहा रही हैं।
जसराज बावनी की रचना संवत् १७३८ में पंडित जीवविनय के शिष्य जसविजय द्वारा लिखी गई ,इसके प्रारंभ में ही ॐकार का महत्व बताया गया है
ॐकार अपार जान आधार, सवै नर नारी संसार जप है। बावन अक्षर माही धुरक्षर, ज्योति प्रद्योतन कोटि तपै है॥ सिद्ध निरंजन भेख अलेख, सरूपन रूप जोगेन्द्र थप है। ऐसो महातम है ॐकार को, पाप जसा जाके नाम खप है।
पंडित दयाराम जी द्वारा लिखित छहढाला नामक ग्रंथ मिलता है, इस ग्रंथ के प्रारंभ में लेखक ने लिखा है कि ॐकार का प्रारंभ में उच्चारण करने से अक्षर सुलभ हो जाता है क्योंकि ॐकार में पंच परम पद अर्थात् पंच परमेष्ठी का वास है. मैं उनकी मन, वचन, काय से वंदना करता हूं। लेखक अपनी अंतर भावना व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि मुझे अक्षर ज्ञान नहीं है, छंद भेद समझता नहीं है. किसी प्रकार अक्षर बावनी रचना रच रहा हूं।
ॐकार मंझार, पंच परम पद बसत हैं। तीन भुवन में सार,बंदों मन वच कायतें ॥ अक्षर ज्ञानन मोहि, छंद भेद समझो नहीं।
पैथोड़ी किम होय, अक्षर भाषा बावनी॥ ॐकार की महिमा अपूर्व है, इसमें कोई संदेह नहीं है। ॐकार की महिमा को सभी ने यथाविधि स्वीकार किया है। तारण तरण जैन समाज में सच्चे देव, गुरु,धर्म का आराधन मंदिर विधि द्वारा किया जाता है। मंदिर विधि को भावपूजा कहते हैं।
इस भावपूजा के प्रारंभ में तत्त्व मंगल के पश्चात् पढे जाने वाले ॐकार मंगल में सर्वप्रथम ॐकार की वंदना की गई है। वहां यह कहा गया है कि ॐकार ही सबका मूल है।
ॐकार से सब भये, डार पत्र फल फूल।
प्रथम ताहि को वंदिये, यही सबन को मूल ॥ ॐकार की और भी महिमा और विशेषता बताते हुए इसी भावपूजा में आगे कहा गया है कि ॐकार सब अक्षरों का सार है। यही पंच परमेष्ठी स्वरूप है तथा तीर्थ रूप महा महिमामय है।
ॐकार का तीन लोक के जीव ध्यान करते हैं। तीर्थकर परमात्मा की दिव्य
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