Book Title: Om Namo Siddham
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 92
________________ २. उपदेशी बारहखड़ी रचयिता- कविवर सूरत जी यह बारहखड़ी विक्रम संवत् १९३० में कविवर सूरत जी द्वारा लिखी गई है। राहतगढ़ जिला सागर (म.प्र.) से प्राप्त हस्तलिखित प्रति के अनुसार उपदेशी बारहखड़ी इस प्रकार है दोहा प्रथम नमूं अरहंत को, नमूं सिद्ध आचार । उपाध्याय सब साधु को, नमूं पंच परकार ॥ १॥ सत्गुरु कही बखान जान यह, तू मत होय अजाना। विनाशीक सुख इन इंद्रिन का, तैं मीठा करि जाना ।। यह सुख जानि खानि है दु:ख की,तू क्या भरम भुलाना। सूरत पछितावैगा जब ही, होहि नरक में थाना ॥ ९ ॥ गगा गुरु निरग्रंथ की, सतबानी मुख भाख । और विकार सबहिं तजो,यह थिरता मन राख ॥ १०॥ भजन करुं श्री आदि को, अंत नाम महावीर। तीर्थंकर चौबीस को, नमूं ध्यान धर धीर ॥ २॥ यह थिरता मन राख, चाख रस जो अपना सुख चाहै। और सकल जंजाल दूर करि, ये बातें अवगाहै ॥ पांच इंद्री वश राख आपनी, कर्म मूल को दाहै। सूरत चेत अचेत होय मति, अवसर बीतो जाहै ॥ ११ ॥ जिन धुनि तें वानी खिरी, प्रगट भइ संसार । नमस्कार ताकू करूं, इकचित इकमन धार ॥ ३ ॥ घघा घाट सुघाट में, नाव लगी है आय । जो अबके चेतै नहीं, तो गहिरे गोता खाय ॥ १२ ॥ ता वानी के सुनत ही, बढ़े परम आनंद । भई सुरति कछु कहन की,बारहखड़ी के छंद ॥ ४॥ बारहखड़ी के छंद बनाऊं, यह मेरे मन भाई। जैन पुराण बखानी वानी, सो मैंने सुन पाई॥ गुरुप्रसाद भविजन की संगति, सो उपजी चतुराई। सूरत कहै बुद्धि है थोरी, श्री जिननाम सहाई ॥ ५॥ गहिरे गोता खाय जाहिं तब, कौन निकासन हारा। समय पाय मानुषगति पाई, अजहूं नाहिं संभारा || बारबार समझाऊं चेतन, मानो कहा हमारा। सूरत कही पुकार गुरु ने, यों होवे निस्तारा ॥ १३॥ नना नाते जगत में, निज स्वारथ सब कोई। आन गांठि जिस दिन पड़े,कोई न साथी होई॥१४॥ कका करत सदा फिर्यो, जामन मरन अनेक। लख चौरासी योनि में, काज न सुधर्यो एक ॥६॥ काज न सुधर्यो एक दिवाने, शुभ अशुभ कमाया। तेरी भूल तोहि दुखदाई, बहुतेरा समझाया ॥ भटकत फिर्यो चहूंगति भीतर,काल अनादि गमाया। सूरत सत्गुरु सीख न मानी, यातै जग भरमाया ॥ ७॥ कोई न साथी होई न साथी, जिस दिन काल सतावै। सब परिवार आपने सुख का, तेरे काम न आवै ।। आठों मद में छाकि रह्यो है, मैं मैं कर विललावै । सूरत समझ होय मतवारा, फिर यह दांव न पावै ॥ १५॥ चचा चंचल चपल मन, तिस मन को वसिआन। जब लग मन बस में नहीं, काज न होय निदान ॥१६॥ खखा खूबी मत लखो, संसारी सुख जान । यह सुख दुःख को मूल है, सतगुरु कही बखान ॥ ८ ॥ १६२ १६३

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