Book Title: Om Namo Siddham
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 85
________________ है। स्वस्थान में रहने से ही पंचपरमेष्ठी पद केवलज्ञान और शुद्ध सिद्ध पद की प्राप्ति होती है। दर्सन सुद्धि निमित्त, भावं सुचप निम्मलं पित्त । न्यानेन न्यान रुवं, जिन उत्तं न्यान निम्मलं सुद्धं ॥ ७४७॥ अर्थ-भाव की शुद्धता और चित्त की निर्मलता सम्यक्दर्शन की शुद्धि में निमित्त है। सम्यकदर्शन की शुद्धि पूर्वक जब साधक ज्ञान से ज्ञान स्वरूप को। जानता है, अनुभव करता है, जिनेन्द्र भगवान कहते हैं कि तब ज्ञान भी निर्मल और शुद्ध हो जाता है। यहां 'द' अक्षर का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए कहा है कि सम्यक्दर्शन की शुद्धि करो अर्थात् समस्त चल विचलता छोड़कर 'मैं आत्मा ही हूं, शरीर नहीं ऐसी दृढ श्रद्धा जगाओ । भाव की शुद्धता और चित्त की निर्मलता सम्यक्दर्शन की शुद्धि में निमित्त है, सम्यक्दर्शन पूर्वक ज्ञान से अपने ज्ञान स्वरूप को जानना, अनुभव करना, जिनेन्द्र भगवान ने उसको ही शुद्ध ज्ञान कहा है इसके द्वारा ही पूर्ण ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान का प्रकाश होता है। न न्यान मयं अप्पानं, छिदंति दुध कम्म मिच्छत्तं । छिन्नं कषाय विषय, अप्प सरुवं च निम्मलं भावं ॥७४९॥ अर्थ- ज्ञानमयी आत्मा का ध्यान करने से मिथ्यात्व और दुष्ट आठों ही कर्म नष्ट हो जाते हैं। क्रोधादि कषाय तथा पांचों इंद्रियों के विषय भाव दूर हो जाते हैं और अपना आत्म स्वरूप निर्मल स्वभाव प्रगट हो जाता है। आत्मा ज्ञानमयी है, जितना ज्ञान है उतना ही आत्मा है और जितना आत्मा है, उतना ही ज्ञान है इसलिए आत्मानुभूति ही ज्ञानानुभूति है, आत्मा और ज्ञान में भेद नहीं है, ऐसे ज्ञानमयी आत्मा का ध्यान करने से मिथ्यात्व, ज्ञानावरणादि आठ कर्म, विषय-कषाय आदि विकारों का अभाव होता है, जिससे आत्मा का निर्मल स्वभाव प्रगट हो जाता है, यही 'न' अक्षर का सार है। परमप्पय बितवन, अप्या परमप्य निम्मलं सुद्धं । कुन्यान सल्य विरय, तिक्त संसार सरनि मोह ॥ ७५०॥ अर्थ- अपने परमात्म स्वरूप, परमात्म पद का चिंतन करो, मैं आत्मा स्वभाव से निर्मल परमात्मा हूं ऐसा अनुभवन करो, इससे कुज्ञान और तीनों शल्य छूट जाती हैं तथा संसार के परिभ्रमण में कारणभूत मोहरूपी अंधकार भी नष्ट हो जाता है। यहां 'प' अक्षर का अभिप्राय बताते हुए कहा गया है कि परमात्मा के समान स्वभाव से मैं आत्मा निर्मल शुद्ध परमात्म स्वरूप हूं ऐसा चितवन करो, अनुभवन करो, यही समस्त विकारों से मुक्त होने का उपाय है। ध धरयंति धम्म संजुत्तं, मन पसरन्त न्यान सह धरनं । झायं सुद्ध सहावं,न्यान सहावेन निम्मलं चित्तं ॥ ७४८॥ अर्थ- जिसको धारण किया जाये वह धर्म है। वस्तु स्वभाव का श्रद्धान करना ही धर्म है । वह धर्म आत्मज्ञान है, पर पदार्थों में पसरने, फैलने वाले मन को इसी आत्मज्ञान से वश में किया जाता है इसलिए चित्त की निर्मलता पूर्वक ज्ञान स्वभाव के आश्रय से शुद्ध स्वभाव का ध्यान करो। जो जीव को संसार के दु:खों से छुड़ाकर उत्तम सुख में स्थित कर दे वह धर्म है। जो उद्धार करे, पतन होने से बचाये, संसार सागर से पार करे, मोक्ष को प्राप्त कराये, वह धर्म है । यह धर्म आत्मज्ञान रूप है, मन की चंचल वृत्ति को आत्मज्ञान के द्वारा ही वश में किया जाता है। यहां आचार्य 'ध' अक्षर के द्वारा धर्म को धारण करने की प्रेरणा देते हुए। कहते हैं कि चित्त की निर्मलता पूर्वक अपने ज्ञान स्वभावी शुद्धात्मा का ध्यान धारण करो। फटिक सरुवं अप्पा, चेयन गुन सुद्ध निम्मलं भाव । कम्म मल पयडि विरय, विरयं संसार सरनि मोहंध ॥ ७५१॥ अर्थ- यह आत्मा, स्वरूप से स्फटिक मणि के समान शुद्ध चैतन्य गुण का धारी निर्मल,वीतराग भाव रूप है, यह समस्त कर्ममलों की प्रकृतियों से विभाव परिणति से रहित है तथा संसार में भ्रमण कराने वाले मोहांधकार से भी विरत है। आत्मा का स्वभाव स्फटिक मणि के समान निर्मल और शुद्ध है। १४९ १४८

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