Book Title: Om Namo Siddham
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 45
________________ हैं- एक 'ॐ नम: सिद्धेभ्यः' और दूसरा- 'ॐ नम: सिद्धम्'।"ॐ नमः सिद्धम्" भी बहुत प्राचीन मंत्र है। आज के देहातों में रहने वाले जो वृद्ध पुरुष हैं, वे इस बात को जानते होंगे। इस मंत्र को कुछ अशुद्ध रूप में सिखाने की रूढ़ि रही। ओ ना मा सीधं यह ॐ नम: सिद्धम् का बिगड़ा हुआ रूप है। अब आप अंदाज कर लें कि 'ॐ नम: सिद्धम् कितना प्राचीन मंत्र है । ६० ॐ नम: सिद्धेभ्य: और ॐ नम: सिद्धम् यह दोनों ही मंत्र सही हैं; पर प्रयोजन देखो तो उसके अंदर मर्म छिपा हुआ है। उस पर दृष्टि डाली जाए तो द्वैत और अद्वैत की भावना का अंतर इसमें स्पष्ट होता है। ॐ नम: सिद्धेभ्य: में सिद्ध भगवतों के लिए जो कि व्यक्तिश: अनंतानंत हैं उनको वंदन किया है और ॐ नमः सिद्धम् में व्यक्ति सिद्ध को न कहकर उन सिद्धों का स्वरूप एक जानकर उस सिद्ध स्वरूप को ही सिद्ध कहकर उस सिद्ध स्वरूप के अनुकूल अपने आपको करने के लिए यहां नमस्कार किया गया है। नमः शब्द का प्रयोग व्याकरण शास्त्र के अनुसार जहां होता है वहां चतुर्थी विभक्ति के योग में होता है जिसको कि नमस्कार किया गया है। 'नमः' इस व्याकरण सूत्र से चतुर्थी विभक्ति में नमस्कार शब्द आता है ; किंतु अध्यात्म की प्रक्रिया में जिनको नमस्कार किया गया है उनके अनुकूल होने का प्रयोजन रहता है इसलिए 'नमः शब्द के साथ द्वितीया विभक्ति भी आती है। ६१ परमात्मा का स्मरण करना शुभ भाव है और परमात्मा के समान अपने स्वरूप का अनुभव करना शुद्ध भाव अर्थात् धर्म है यह अंतर्दृष्टि का विषय है। इस विषय में श्री गुरुदेव आचार्य तारण स्वामी कृत कमल बत्तीसी ग्रंथ की टीका के पश्चात् भारत भ्रमण समीक्षा के प्रश्नोत्तरों में सबसे पहला प्रश्न है जो इस प्रकार है प्रश्न-ॐ नमः सिद्धम् और ॐ नमः सिद्धेभ्यः में क्या अंतर है और इसका क्या अर्थ है? समाधान- ॐ नम: सिद्धेभ्यः अर्थात् सिद्ध भगवंतों को नमस्कार हो।। ॐ नम: सिद्धम् अर्थात् सिद्ध स्वरूप को नमस्कार हो। 'सिद्धेभ्य: बहुवचन है, इसमें सिद्ध भगवंतों को नमस्कार है। जो श्रद्धा की अपेक्षा परोन्मुखी दृष्टि है। 'सिद्धम्' एकवचन है, इससे सिद्ध स्वरूप को नमस्कार होता है। इसमें श्रद्धा की अपेक्षा सिद्ध परमात्मा भी आ गए और अपना सिद्ध स्वरूप भी आ गया तथा दृष्टि ६०. सिद्ध भक्ति प्रवचन, क्षु. सहजानंद महाराज, सहजानंद शास्त्रमाला मेरठ प्रकाशन सन् १९७६, पृष्ठ ५ ६१. वही, पृष्ठ ५,६ की अपेक्षा स्वोन्मुखी दृष्टि है, जो सम्यक्दर्शन धर्म का हेतु है। श्री गुरु तारण स्वामी का यह सिद्ध मंत्र है जो कई ग्रंथों में दिया गया है " ६२ 'ॐनमः सिद्धम' मंत्र के स्मरण पर्वक अक्षराम्भ करने के कारण ही वर्णमाला को 'सिद्ध मातृका' कहा गया। जैसा यह शब्द है 'सिद्ध मातृका' इससे अक्षरावली के स्वयं सिद्ध होने का बोध होता है। यही कारण है कि अनेक आचार्यों ने सिद्ध मातृका के संबंध में अपने ग्रंथों में उल्लेख किया है। तत्वसार दीपक नामक ग्रंथ श्री अमृतचन्द्राचार्य महाराज द्वारा लिखा गया है, इस ग्रंथ का यह श्लोक स्मरणीय है - ध्यायेदनावि सिद्धांत व्याख्यातां वर्णमातृकाम् । आदिनाथ मुखोत्पन्नां विश्वागम विधायिनीम् ॥ अर्थ- अनादि सिद्धांत के रूप में प्रसिद्ध एवं संपूर्ण आगमों की निर्मात्री भगवान आदिनाथ के मुख से उत्पन्न वर्ण मातृका का ध्यान करना चाहिए। चर्चा सागर ग्रंथ में णमोकार मंत्र की विशेषता और महिमा बताते हुए लेखक ने लिखा है "यह पंच णमोकार मंत्र अनादि निधन है, इसका कोई कर्ता नहीं है। यह अनादिकाल से स्वयं सिद्ध चला आ रहा है। कालाप व्याकरण का पहला सूत्र है-"सिद्धो वर्ण समाम्नाय:"अर्थात् वर्णों का समुदाय सब स्वयं सिद्ध है। अकार से लेकर ह तक के अक्षरों को वर्ण कहते हैं। यह सब स्वाभाविक अक्षर हैं, इन्हीं अक्षरों के द्वारा द्वादशांग की रचना हुई है। वह भी अनादिनिधन है और परंपरा से बराबर चली आ रही है। ६४ श्री भर्तृहरि ने भी अपनी रचना 'वाक्य पदीयम्' में वर्ण मातृका अथवा वर्ण समाम्नाय की अनादि सिद्धांत के रूप में चर्चा की है। उन्होंने लिखा है"अस्याक्षर समाम्नायस्य वाग्व्यवहार जनकस्य न कश्चित् कर्ताऽस्ति एवमेव वेदे पारम्पर्येण स्मर्यमाणम्"अर्थात् इस अक्षर समाम्नाय का कोई कर्ता नहीं है,यहीअक्षर समाम्नाय समस्तपद वाक्य रूपवाग्व्यवहार का जनयिता है। परंपरा से वेद में ऐसा ही स्मरण किया गया है। "सिद्धो वर्ण समाम्नाय:" तथा "सिद्धम् नमः" पदों से वर्ण समाम्नाय अनादि सिद्ध है। ५५ ६२. कमलबत्तीसी, भारत भ्रमण समीक्षा, ब. बसंत, पृष्ठ १४५, ब्रह्मानंद आश्रम पिपरिया प्रकाशन सन् १९९९ ६३. तत्वसार दीपक,श्लोक ३५ ६४. चर्चासागर, पृ.३५२ ६५. भर्तृहरिद्वारा रचित वाक्यपदीयम्

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