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अनुभूति सहित का एक अंश ज्ञान प्रगट हुआ है, वह सकल निरावरण अखंड एक शुद्ध पारिणामिक भाव लक्षण निज परमात्म स्वरूप का ध्यान करता है क्योंकि वह जानता है कि निज रस से भरपूर शुद्धात्मा वही एक सारभूत है इसके अलावा अन्य कुछ भी नहीं है। अनंत-अनंत शक्ति के विस्तार से परिपूर्ण अपना सिद्ध स्वरूपी चैतन्य भगवान स्वयं ही सिद्धत्व का धनी है, इसी की ओर दृष्टि करके अंतर निमग्न होने पर सिद्ध स्वरूपी चैतन्य के पाताल में से अतीन्द्रिय आनंद की झिर फूटती है, यही स्वानुभव दशा है। इसी स्वानुभव का आनंद लेते हुए सद्गुरु श्री जिन तारण स्वामी ने कहा है
सो, सो, सोह,तूंसो तूं सो तूं सो॥ हो सो, हो सो तूं सो, सो तूं सोहं सोहं हंसो॥ सोहं, हंसो, सोहं सो तूं सोहं ॥ हुजै,तूंजै, तुं हुंजै, तूंजै सुभाइ सुभाइ सुभाइ मुक्ति विलसाइ॥
अर्थ-वह, वह, वही मैं हूं,जो तू है वह, जो तू है वह, जो तू है वह। मैं वही हूं, जो मैं हूं वही तू है, जो तू है वही मैं हं.वही मैं हूं. मैं वही हूं वह मैं हं . मैं वह हूं, वह मैं हूं, जो तू है वह मैं हूं।
मैं जय अर्थात् निज शुद्धात्म स्वरूप की जय, तू जय, तू जय, मैं जय, तू जय, स्वभाव स्वभाव में ही मुक्ति विलस रही है। १६१
इस मंगलमय सूत्र के एक-एक शब्द में आत्म साक्षात्कार हो रहा है। परमात्मा के समान अपने आत्म स्वरूप का बहुमान आ रहा है। परमात्मा की जय-जयकार मच रही है। सद्गुरु तारण स्वामी शुद्धात्म स्वरूप के साधक थे, यह सूत्र उनकी अंतर आत्मा से प्रगट हुआ है। श्री गुरु का संपूर्ण जीवन अपने आत्म स्वरूप के साक्षात्कार में आत्म साधना एवं आत्म समाधि में व्यतीत हुआ। इस मंत्र के प्रत्येक शब्द में अपने परमात्म स्वरूप की महिमा प्रत्यक्ष हो रही है। अपने स्वभाव में ही मुक्ति विलस रही है, अध्यात्म की साधना का यह अपूर्व अनुभव है। इस ग्रंथ की टीका में कहा गया है
वही मैं हूं,वही तू है, वही वह सोऽहं अहम् ।। सब के स्वभावों में पड़ी है मुक्ति निधि देखो स्वयं ॥१६॥
दृष्टि का विषय नित्यानंद स्वरूप अपना सिद्ध स्वरूपी आत्मा है। अतीन्द्रिय । आनंद का भोग भले ही पर्याय में हो परंतु वह पर्याय दृष्टि का विषय नहीं है। दृष्टि का विषय तो अविकारी आनंदकंद सच्चिदानंद प्रभु शुद्धात्मा ही है और उसके १६१. श्री अध्यात्मवाणी, छद्मस्थवाणी ७/१-४ १६२. छद्मस्थवाणी टीका, ब्र.जयसागर जी, सागर प्रकाशन, १९९१
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सर्वस्व को भोगने वाला सम्यक्दृष्टि ज्ञानी है क्योंकि चैतन्य वस्तु अंतर में परिपूर्ण है। सम्यक्दृष्टि मोक्षमार्गी ज्ञानी धर्मात्मा साधक शरीर को और राग को नहीं भोगता और अल्पज्ञता को भी नहीं भोगता। उसकी दृष्टि तो पूर्ण पर है, वह उसी पूर्ण स्वभाव के आनंद रस का आस्वादन करता है। पूर्णता का यह आनंद ही मोक्षमार्ग में ज्ञानी साधक को आगे बढ़ाता है। जन्म-मरण से रहित होने का ऐसा पथ अद्भुत ही है। श्री गुरु तारण स्वामी इसी प्रकार अध्यात्म मार्ग के साधक वीतरागी संत थे। परमात्मा के सदृश्य अपने आत्म स्वरूप का दर्शन अनुभवन उनकी सहज चर्या बन गई थी। श्री छद्मस्थवाणी ग्रंथ के आठवें अध्याय का प्रारंभ भी अपने आत्म स्वरूप के अनुभव परक सूत्र से किया है। पूज्य श्री ब्र. जयसागर जी महाराज ने इस ग्रंथ की टीका में लिखा है
अयं अयं अयं । जय जयं जयं । अयं जयं । अयं जयं। स्वयं स्वयं स्वयं । सोऽहं सोऽहं सोऽहं । जयं अहं तुहं। तुहं अयं जयं । अहं तुहं । तुहं अहं।
अर्थ- यह यह यह । जय जय जय । यह जय । यह जय । स्वयं स्वयं स्वयं । वह मैं वह मैं वह मैं । जय मैं तू। तू यह जय । मैं तू । तू मैं।
टीका इस प्रकार हैशुद्धचिद्रूपोऽयमस्ति। अयमस्मि शुद्धात्मा। अयं ज्ञायते ज्ञाता
दृश्यते दृटा च मया । त्रिकाल जयवंत:शुख स्वभावोऽयम्। अहं जयतु । अयं जयतु जयवंतः । स्वयमेवास्ति शाश्वत स्वरूपः। स्वयमेवारत्यनादिनिधनोऽयं । पराश्रयरहितोऽयं केवल: स्वयं । स एवाई। स एवाह । स एवाहं जयोऽहं त्वं । त्वमपि अयमसि । जयोऽसि त्वं । अहं त्वमस्मि । त्वंच अहमसि। इत्यात्म स्वयं साक्षात्कारः।
अर्थ- यह है शुद्धचिद्रूप। यह हूं शुद्धात्मा। यह ज्ञाता जाना जाता है, दृष्टा देखा जा रहा है। मैं ही वह हूं। त्रिकाल जयवंत शुद्ध स्वभाव यही है। यह जयवंत हो। यह जयवंत हो । स्वयं ही शाश्वत स्वरूप है। यह स्वयं ही अनादि निधन है। यह पराश्रय रहित स्वयं ही केवल है। वही मैं हूं। वही मैं हूं। वही मैं हूं। जयवंत मैं तू। तू भी यह है जयवंत है। मैं तू हूं। तू मैं है। इस प्रकार यह स्वयं आत्मा का साक्षात्कार है। इस टीका का कलश रूप काव्य इस प्रकार है
अयमस्म्यहं जयमय: सोऽहं स्वरूप,
स्त्वं मादृशोऽसि तव शुद्ध स्वरूपमस्ति । ज्ञाताहमस्मि स्वयमात्मस्वरूप दृष्टा, परद्रव्यभावरहितोऽहमहं स्वयं स्वः ॥
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