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तैंतीस व्यंजन निरूपण चौदह स्वरों के पश्चात् व्यंजनों का आध्यात्मिक स्वरूप वर्णन प्रारंभ करते। हैं। प्रारंभिक क्रम में व्यंजनों की वास्तविकता और उनके द्वारा जिस साध्य की सिद्धि करना है, उसका उल्लेख करते हुए कहते हैं -
विंजन स एन सुद्धं,सुद्धप्पान्यान दंसनं परमं । परमं परमानंद,न्यान सहावेन विजनं विमलं ॥ ७२९॥
अर्थ- वही व्यंजन शुद्ध हैं,जिनके द्वारा उत्कृष्ट दर्शन,ज्ञानमयी शुद्धात्मा का बोध हो, श्रेष्ठ परमानंद की प्राप्ति हो। ज्ञान स्वभाव के आश्रय से विमल, निर्मल स्वभाव का अनुभव हो, वही व्यंजन, व्यंजन हैं।
चौदह स्वरों के माध्यम से अपने आत्म स्वरूप का आराधन करने के पश्चात् अब व्यंजनों के द्वारा अपने आत्म स्वरूप की आराधना का प्रारंभ करते हुए यहाँ कहते हैं कि वही शुद्ध व्यंजन हैं जिनके द्वारा ज्ञान दर्शनमयी चैतन्य स्वभाव का बोध हो,श्रेष्ठ आनंद परमानंद की प्राप्ति हो, यही व्यंजनों की सार्थकता है।
को स्वीकार करने से मिथ्यात्व कुज्ञान क्षय हो जाता है, कर्म भी खिप जाते हैं अर्थात् निर्जरित हो जाते हैं। क्षपक श्रेणी आरोहण करने से संसार भी क्षय हो जाता है अर्थात् छूट जाता है।
यहां 'ष' अर्थात् 'ख' अक्षर का सार बताते हुए कहा है कि अपने स्वभाव को स्वीकार करने पर मिथ्यात्व कुज्ञान कर्म और क्षपक श्रेणी पर चढ़ने से संसार का भी क्षय हो जाता है । जैन दर्शन में करणानुयोग के अंतर्गत चौदह गुणस्थान का विवेचन किया गया है, वहां श्रेणी के दो भेद किए हैं-उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी।
जो साधु चारित्र मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकतियों का उपशम करते हैं वे उपशम श्रेणी पर चढ़ते हैं, इसके चार गुणस्थान हैं- आठवां, नवां, दसवां और ग्यारहवां । उपशम श्रेणी चढ़ने वाला साधु ग्यारहवें गुणस्थान से नीचे गिर जाता है। जो साधु इक्कीस प्रकृतियों का क्षय करते हैं वे क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं, इसके भी चार गुणस्थान हैं- आठवां, नवां, दसवां और बारहवां । क्षपक श्रेणी चढने वाले साधु नियमत: मोहनीय कर्म का क्षय करके शेष घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञानी परमात्मा हो जाते हैं।
यहां प्रश्न है कि 'ष' को 'ख' के रूप में उच्चारण क्यों किया जा रहा है? उसका समाधान यह है कि प्राचीन काल में'ओ ना मा सी धम' के उच्चारण पूर्वक पाटी की शिक्षा दी जाती थी, उन पाटियों में 'हि' को 'इ' 'ही' को 'ई' तथा 'ष' को 'ख' पढ़ा जाता था।
जिन बुजुर्गों ने पुराने समय की पाटी की पढ़ाई पढ़ी है, वे इस बात को अच्छी तरह जानते होंगे, उसी आधार पर यहां 'ष' को 'ख' के रूप में उच्चारण किया जा रहा है।
क कका कम्म विपनं,कका वर झान केवलंन्यानं । कका कमल सुवन्न,कम्मं विपति सुद्ध झानत्थं ॥ ७३०॥
अर्थ-'क' अक्षर कहता है कि कर्मों का क्षय करो। 'क' अक्षर का अभिप्राय है कि श्रेष्ठ ध्यान धारण कर केवलज्ञान को प्रगट करो। 'क' अक्षर कहता है कि केवलज्ञान होने पर स्वर्णमयी कमलों की रचना होगी अर्थात् 'क' अक्षर उन स्वर्णमयी कमलों की स्मृति कराता है, जिनको तीर्थंकर भगवान के अरिहंत अवस्था के समय विहार करते समय देवता रचना करते हैं। 'क' अक्षर का सार यही है कि आत्मा के शुद्ध ध्यान में स्थित होकर कर्मों को क्षय करो।
'क' कहता है कि कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान प्रगट करो। 'क' अक्षर का अभिप्राय यह है कि शुद्ध ध्यान में स्थित होकर संपूर्ण कर्मों को क्षय करने से सिद्धि मुक्ति की प्राप्ति होती है।
ख षषा विपति सुकम्म, विपक से नि षवइ संसारं । मिथ्या कुन्यान विपनं, अप्प सरुवं च न्यान सहकारं ॥ ७३१॥ अर्थ- 'ख' (ष) अक्षर का सार यह है कि अपने आत्म स्वरूप ज्ञान स्वभाव ।
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गगा गमन सहावं,न्यानं झानं च अप्पयं विमलं । तिक्तंति सयल मोह,विक्त रुवेन भावना निस्चं ॥ ७३२॥
अर्थ- 'ग' अक्षर का अभिप्राय है कि अपने गमन स्वभावी अर्थात् परिणमन और ज्ञान स्वभावी आत्मा को पहिचानो। अपने स्वरूप से प्रगट शुद्धात्म स्वरूप की निश्चय भावना भाने से संपूर्ण मोह छूट जाता है इसलिए विमल निर्मल अपने आत्म स्वरूप का ही ज्ञान करो और उसी का ध्यान करो।
जीव नामक पदार्थ एकत्व पूर्वक एक ही समय में परिणमन भी करता है और जानता भी है। यह जीव सदा ही परिणाम स्वरूप स्वभाव में रहता हुआ होने
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