________________
ऋ
महिमा है कि जिसका आश्रय लेने पर समस्त पर द्रव्यों का सर्वथा त्याग हो जाता है और आत्म स्वरूप में लीन होने पर आत्मा निर्मल ज्ञानमयी परमात्म पद को प्राप्त कर लेता है।
रीन कम्म कलंक,रीनं चौगई संसार सरनि मोहंध। रुपियंति ममलमान, धम्म सक्कच ममल अप्पानं ॥ ७१६॥
अर्थ- जिन जीवों को ममल स्वरूप के ध्यान की रुचि जागी, उन्होंने ममल आत्म स्वरूप को धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में ध्याते हुए कर्म के कलंक को धो दिया है तथा संसार की चार गति चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करानेवाले मोह रूपी अंधकार को भी क्षय कर दिया है।
यहां 'ऋ' अक्षर के माध्यम से यह बताया गया है कि जो भव्य जीव अपने आत्म स्वरूप की रुचि जाग्रत करते हैं, आत्म कल्याण की भावना भाते हैं तथा धर्म, शुक्ल ध्यान में अपने ममल स्वरूप शुद्धात्मा का ध्यान करते हैं, वे समस्त कर्म कलंक को क्षय करके परमात्मा हो जाते हैं।
एवं सुद्ध सहावं, एयं संसार सरनि विगतोयं । एयं च सुद्ध भावं, सुद्धप्पा न्यान दंसनं सुद्धं ॥ ७२२॥
अर्थ- आत्मा का शुद्ध स्वभाव एक अखण्ड अविनाशी है यही एक स्वभाव संसार के परिभ्रमण से रहित है। यही एक स्वभाव आत्मा का शुद्ध स्वभाव है, जो शुद्ध ज्ञान दर्शनमयी शद्धात्मा है।
यहां 'ए' अक्षर का अभिप्राय यह है कि आत्म स्वभाव एक है। यह संसार के परिभ्रमण से रहित है यही अखंड अविनाशी स्वभाव शुद्ध ज्ञान दर्शनमयी शुद्धात्मा है।
लू
लिंग व जिनवरिद, छिन्नं परभाव कुमय अन्यानं । अप्पा अप्प संजुत्त, परमप्या परम भावेन ।। ७२०॥
अर्थ-जो जिनेन्द्र भगवान के समान भाव और द्रव्यलिंग के धारी हैं, वे वीतरागी साधु परभाव अर्थात् रागादि भाव कुमति और अज्ञान को क्षय करने वाले हैं, वे अपनी आत्मा से अपनी आत्मा में लीन होकर उत्कृष्ट शुद्ध भाव के द्वारा ध्यान के प्रताप से परमात्मा हो जाते हैं।
यहां 'लु' अक्षर के द्वारा यह स्पष्ट किया है कि वीतरागी साधु समस्त रागादि । विकारों को क्षय कर अपने आत्म स्वरूप में लीन होकर अपने परमात्म पद को प्राप्त कर लेते हैं।
ऐयं इय अप्पानं, अप्पा परमप्प भावना सुद्ध। राग विषय विमुक्कं,सुद्ध सहावेन सुद्ध सम्मत्तं ॥ ७२३॥
अर्थ-जहां एक मात्र अपने आत्म स्वरूप का आश्रय होता है, वहां आत्मा परमात्मा की शुद्ध भावना होती है। शुद्ध स्वभाव के अनुभव से ही शुद्ध सम्यक्त्व होता है, इसी के बल से जीव पांच इन्द्रियों के विषय और रागादि से छूट जाता है।
यहां 'ऐ' अक्षर का सार यह है कि अपने एक मात्र आत्म स्वभाव के आश्रय और लीनता से शुद्ध सम्यक्त्व पूर्वक जीव रागादि विकारों से छूट जाता है।
लीला अप्प सहाव, पर दवंचवई सव्वहा सके। अप्पा परमप्यान, लीला परमप्प निम्मलं न्यानं ॥ २१ ॥
अर्थ-अपने आत्म स्वभाव की लीला अर्थात् महिमा बड़ी अपूर्व है, जिसका आश्रय लेने पर समस्त पर द्रव्यों का सर्वथा त्याग हो जाता है और यह आत्मा परमात्मा हो जाता है। आत्म स्वभाव की ऐसी लीला अर्थात् महिमा है कि स्वरूप में रमणतारूप क्रीड़ा करने पर आत्मा निर्मल परमात्म पद को प्राप्त कर लेता है। यहां 'M' अक्षर का सार बताया है कि आत्म स्वभाव की ऐसी लीला अर्थात्
१३६
ओ उवं ऊर्थ सहावं, अप्या परमप्प विमल न्यानस्य । मिथ्या कुन्यान विरयं, सच ममल केवल न्यानं ।। ७२४॥
अर्थ- ॐकारमयी शुद्धात्मा का श्रेष्ठ स्वभाव है, जब आत्मा अपने इसी विमलज्ञानमयी परमात्म स्वरूप में रत होता है, तब मिथ्यात्व कुज्ञान का पूर्णतया अभाव हो जाता है और ॐकारमयी श्रेष्ठ शुद्ध स्वभाव में लीन होने पर ममल केवलज्ञान प्रगट हो जाता है।
यहां 'ओ' अक्षर का अभिप्राय बताते हुए बताया गया है कि ॐकार स्वरूप
१३७