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शुद्धात्मा श्रेष्ठ स्वभाव का धारी है, इसी में लीन होने पर केवलज्ञान की प्राप्ति होती है।
है कि अहो ! यह आत्मा ही परमात्मा है। निश्चयनय की अपेक्षा स्वभाव से प्रत्येक जीव परमात्मा है, यह आत्मा का कारण समयसार स्वरूप है। जब आत्मा अपने सत् स्वरूप का श्रद्धान ज्ञान करता है और स्वरूप में लीन होता है, तब रत्नत्रय की एकता रूप मोक्षमार्ग में चलकर आत्मा पर्याय में भी परमात्म पद प्रगट कर लेता है, यह आत्मा का कार्य समयसार स्वरूप है।
औ
औकास उवएस, औकासं विमल मान अप्पानं । संसार विगत रुवं, औकासं लहन्ति निव्वानं ॥ ७२५॥
अर्थ- जिनेन्द्र भगवान ने संसार से विरक्त होकर अपने आत्म स्वभाव में रहने का उपदेश दिया है। अपने आत्म स्वरूप का विमल निर्मल ध्यान धारण करना ही अपने स्वरूप में रहने रूप अवकास है, यही सच्चा पुरुषार्थ है। इसी से जीव संसार के विभावों से छूटता है और अपने स्वरूप में रमणता रूप अवकास मयी पुरुषार्थ से निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
यहां 'औ' अक्षर से अवकास अर्थात् स्वरूप में रमणता रूप पुरुषार्थ से निर्वाण प्राप्त करने की प्रेरणा दी गई है,इसी पुरुषार्थ से निर्वाण की प्राप्ति होती है।
अं
अप्पा परमप्पान, घाय चवक्कय विमुक्क संसारे। रागादि दोस विरयं, अप्पा परमप्प निम्मलं सुद्धं ॥ ७२६॥
अर्थ- आत्मा स्वभाव से परमात्मा है, यह आत्मा रागादि दोषों से विरक्त होकर अपने स्वभाव में लीन होता है, जिससे संसार में परिभ्रमण कराने वाले चार । घातिया कर्मों से छूटकर आत्मा स्वयं ही निर्मल शुद्ध परमात्मा हो जाता है।
यहां 'अं' अक्षर का सार बताया है कि आत्मा अपने स्वभाव में लीन होकर रागादि दोष और चार घातिया कर्मों को नष्ट करके परमात्म पद को प्राप्त कर लेता है।
चौदह स्वरों का सार-शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव सुर चौवस संसुद्ध, नंत चतुस्टय विमल सुद्धच। सुद्ध न्यान सरुव, सुरविंद ममल न्यान ससहावं ॥ ७२८॥
अर्थ-चौदह स्वरों के द्वारा परम शुद्ध, अनंत चतुष्टयमयी निश्चय से कर्म मलरहित निर्दोष आत्मा के शुद्ध ज्ञान स्वरूप का ध्यान करो। इन चौदह स्वरों के द्वारा ममल ज्ञान स्वभावी शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव करो।
इस प्रकार यहाँ चौदह स्वरों को लेकर आत्म तत्त्व का विचार किया है। अ, आ, इ, ई, उ, ऊ आदि चौदह स्वरों की अपेक्षा से अपने आत्मा के परमात्म स्वरूप का चिंतन-मनन किया गया है अर्थात् इन चौदह स्वरों के माध्यम से आचार्य श्री जिन तारण स्वामी ने आत्मा के शुद्ध स्वभाव का स्वयं रसास्वादन किया तथा आत्मार्थी जिज्ञासु भव्यात्माओं के लिये भी चौदह स्वरों के माध्यम से अपने अक्षर स्वरूप अर्थात् अक्षय,अविनाशी शुद्धात्म तत्त्व का चिंतन-मनन और अनुभव करने की प्रेरणा दी है।
यहाँ प्रश्न यह है कि आपने १४ स्वरों का उल्लेख किया है और १६ स्वरों का वर्णन किया है फिर स्वर १४ माने जावें अथवा १६ स्वर माने जावें?
उसका समाधान यह है कि व्याकरण में अं और अ: को स्वर नहीं माना गया है, किंतु अनुस्वार और विसर्ग को प्रदर्शित करने के लिये किसी स्वर का आश्रय लेना पड़ता है क्योंकि बिना स्वर की सहायता के अनुस्वार और विसर्ग का उच्चारण संभव नहीं है इसलिये अ स्वर का सहारा लेकर अनुस्वार और विसर्ग को दर्शाया गया है इसलिये स्वर १६ न होकर १४ ही माने जावेंगे। व्याकरण के इस नियम के अनुसार आचार्य श्री मद् जिन तारण स्वामी ने यहां १४ स्वरों का ही प्रयोग किया है।
अः अह अप्पा परमप्या, न्यान संजुत्त सुदंसनं सुद्ध। संसार सरनि विमुक्कं, परमप्पा लहै निव्वानं ॥ ७२७॥
अर्थ- अहा ! यह आत्मा ही परमात्मा है, शुद्ध सम्यक्दर्शन, ज्ञान से संयुक्त होकर संसार के परिभ्रमण से छूटकर अपने आत्म स्वरूप को ध्याता हुआ आत्मा परमात्मा होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। यहां 'अ:' अक्षर स्वर के द्वारा अपने शुद्धात्म स्वरूप का बहुमान जगाया
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