Book Title: Om Namo Siddham
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 69
________________ सकता । एक होने से यह सिद्धम् पद स्वभाव को सूचित करता है। स्वभाव में सिद्ध परमात्मा का स्वभाव और निज आत्मा का स्वभाव गर्भित है। ॐ नम: सिद्धम् यह मंगलमय मंत्र पूर्वोक्त विवेचन के अनुसार अपने सिद्ध स्वभाव की अनुभूति को प्रसिद्ध करता है। यहां सिद्ध परमात्मा के समान ही अपने स्वरूप के अनुभव की प्रमुखता है इसलिए आत्मा और परमात्मा में अभेदपना है। इस अपूर्व स्थिति में आत्मा ही आत्मा के द्वारा उपास्य है। आचार्य पूज्यपाद ने अभेद स्थिति में होने वाले इस अनुभव का उल्लेख करते हुए कहा है - यः परात्मा स एवाऽहं योऽहंस परमस्ततः। अहमेवमयो पास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः॥ अर्थ-जो परमात्मा हैं वह ही मैं हूँ और जो मैं हूँ वह परमात्मा है इसलिये मैं ही मेरे द्वारा उपास्य हूँ, अन्य कुछ भी उपास्य नहीं है। और न मुझसे भिन्न अन्य के द्वारा मैं उपासनीय हूं। १६७ इस प्रकार यह अंतरंग अनुभूति जिन वचनों का सार है वस्तुत: यही परमात्मा की उपलब्धि है। ऐसी स्थिति में पूज्य-पूजक का भेद भी समाप्त हो जाता है, परमार्थत: यही परमात्मा की सच्ची पूजा है जो स्वयं को आत्मा से परमात्मा बनाने वाली है। आचार्य योगीन्दुदेव ने इसी प्रकार का एक आध्यात्मिक मंत्र दिया है - मणु मिलियउ परमेसरह, परमेसर विमणस्स। बीहि वि समरसिहूवाह, पुज चडावर्ड कस्स ॥ अर्थ- विकल्प रूप मन, भगवान आत्माराम से मिल गया और परमेश्वर भी मन से मिल गया। दोनों के ही समरस होने पर मैं अब किसकी पूजा करूं । १६८ इस प्रकार संपूर्ण द्वैत भाव का मिट जाना, अद्वैत भाव का प्रगट हो जाना, आत्मा और परमात्मा में किसी प्रकार का भेद न रहना, परम समरसी भाव से सम्पन्न अपना ममलह ममल स्वभाव ध्रुव स्वरूप शुद्धात्म तत्त्व जो नंद, आनंद, चिदानंद, स्वभावमयी परम तत्त्व विंद पद स्वरूप है इसका अनुभवन ही सिद्ध स्वभाव को नमस्कार है। ऐसे अद्वितीय अनुपम परम आनंददायक आध्यात्मिक अनुभव को अपने में समाहित किए हुए है यह मंगलमय मंत्र- ॐ नम: सिद्धम् । जयतु जय ॐ नम: सिद्धम् ॐ नमः सिद्धम संबंधी आध्यात्मिक भाव परक आचार्य प्रणीत -गाथा सत्रआचार्य श्री जिन तारण स्वामी श्रावकाचार ग्रंथ में कहते हैं उवं हियं श्रियं चिन्ते, सुख सद्भाव पूरितं । संपून सुर्य रूप, रूपातीत विंद संजुतं ॥ २॥ अर्थ- उवंकार ह्रियंकार श्रियंकार अर्थात् ॐ ह्रीं श्रीं से परिपूर्ण अपने शुद्ध स्वभाव का चिंतन करता हूं जो स्वयं का ही परिपूर्ण परमात्म स्वरूप है तथा समस्त रूपों से अतीत विन्द अर्थात् निर्विकल्प स्वरूपमय है। देवं च न्यान रूपेन, परमिस्टी च संजुतं । सो अहं देह मध्येषु,यो जानाति स पंडिता॥४२॥ अर्थ-देव जो मात्र ज्ञान स्वरूप है, जो परमेष्ठीमयी है ऐसा देवों का देव अरिहंत परमात्मा निश्चय से मैं इस देह में स्थित आत्मा हूं, ऐसा जो जानता है वह पंडित अर्थात् सम्यक्दृष्टि ज्ञानी है। कर्म अस्ट विनिर्मुक्तं, मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते। सो अहं देह मध्येषु, यो जानाति स पंडिता ॥ ४३॥ अर्थ- आठों कर्मों से रहित सिद्ध परमात्मा जो मुक्ति स्थान सिद्ध क्षेत्र में विराजते हैं वही मैं सिद्ध परमात्मा इस देह में विराजमान हूं, जो तत्त्वज्ञानी ऐसा जानता है वह पंडित अर्थात् सम्यक्दृष्टि ज्ञानी है। परमानंद सा विस्टा, मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते। सो अहं देह मध्येष, सर्वन्यं सास्वतं पूर्व ॥४४॥ अर्थ- परमानंद का अनुभव करने वाले अर्थात् हमेशा परम आनंद में लीन रहने वाले सिद्ध परमात्मा हैं जो मुक्ति स्थान में विराजमान हैं, वैसे ही सिद्ध के समान मैं इस देह में विराजमान हूं जो सर्वज्ञ शाश्वत ध्रुव स्वभाव है। दर्सन न्यान संजुक्तं,चरनं वीर्ज अनन्तयं । मय मूर्ति न्यान संसुद्ध,देह देवलि तिस्टिते ॥४५॥ अर्थ- अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य से संयुक्त अर्थात् अनंत चतुष्टयमयी परम शुद्ध ज्ञानमयी चैतन्य मूर्ति देह देवालय में विराजमान १६७. समाधि तंत्र, आचार्य पूज्यपाद स्वामी, श्लोक-३१ १६८. परमात्म प्रकाश, आचार्य योगीन्दुदेव, १/१२३ ११६ आत्मा परमात्म तुल्यं च, विकल्प चित्त न क्रीयते। सुद्ध भाव स्थिरी भूतं, आत्मनं परमात्मनं ॥ ४८॥ ११७

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