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अर्थ-जो परमात्मा ज्ञान स्वरूप है, वह मैं ही हूं, जो कि अविनाशी देव में आता है, जिसमें समस्त संकल्प-विकल्प के समूह विलीन हो गए हैं, शुद्धनय स्वरूप हूं, जो मैं हूं वही उत्कृष्ट परमात्मा है इस प्रकार निर्धान्त होकर भावना ऐसा प्रगट करता है। कहा हैकर। १५४
आत्म स्वभाव परभाव भिन्नमापूर्णमाद्यंत विमुक्तमेकम्। सोलहवीं शताब्दी में हुए श्री गुरु तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने विलीन संकल्प विकल्प जालं प्रकाशयन् शुखनयोभ्युदेति ॥११६ अपने सिद्ध स्वभाव की साधना की और अपने ग्रंथों में भी इसी सिद्ध स्वभाव की आत्मा का सिद्धत्व अपने आपमें परिपूर्ण है और परभावों से शून्य है। महिमा बतलाई है। केवलमत के सिद्ध स्वभाव नामक ग्रंथ में आचार्यदेव ने सिद्ध आचार्य श्री जिन तारण स्वामी ने शून्य स्वभाव की साधना के अंतर्गत सिद्धि का स्वभाव की अनुभूतियां स्पष्ट की हैं। इस ग्रंथ की टीका करते हुए पूज्य ब्र. जयसागर उल्लेख करते हुए कहा है किजी महाराज ने लिखा है -
सिद्धि संपात विसेष सुन्न सुभाव । ऐसो सिद्धस्वभाव उत्पन्न प्रवेश॥५॥
अर्थ- आत्मा के शून्य स्वभाव की अपनी विशेषता है, इसी में रमण अर्थ- इस प्रकार यह सिद्ध स्वभाव अपने असंख्यात प्रदेशी स्वक्षेत्र में करना, लीन रहना यही सिद्धि की संपत्ति है। १५७ उत्पन्न होकर अपने अनंत ज्ञानादि स्वचतुष्टय में प्रवेश कर रहा है।
ॐ नमः सिद्धम् मंत्र में आत्मा के सिद्ध स्वभाव को नमस्कार किया गया सिद्धों का निवास तो सिद्ध शिला बताया गया है, यहां अपने स्वभाव में है। यह सिद्ध स्वभाव अपने सिद्धत्व से अपने में परिपूर्ण और रागादि विकारों का प्रवेश निवास करना कहा गया है। यह कैसे ? वास्तव में मुक्ति क्षेत्र तो अपना अभाव होने से पर से शून्य है। इस शून्यता के अनुभव को "सत्ता एक शून्य ज्ञान स्वभाव है। अनंत इस समय सिद्ध परमात्मा हैं, वे अपने ज्ञान स्वभाव में बिन्द" के रूप में श्री जिन तारण स्वामी ने अनुभव में लिया था। स्वभाव में जहां हैं। अज्ञानी की मुक्ति पराश्रित है। ज्ञानी का सब कुछ अपने आश्रित है, अपने कोई परभाव नहीं है, वही शून्य स्वभाव है। शून्य स्वभाव में अपने अस्तित्व की पास है। सिद्धों का स्वभाव इस शरीर के आश्रित नहीं है। जिसका जो स्वभाव है, पूर्णता का बोध है, यहां परभावों का अभाव होता है, अपने स्वभाव का अभाव वह उसके आश्रित है। आत्मा का स्वभाव आत्मा के आश्रित और शरीर का नहीं होता, यदि स्वभाव का अभाव हो जाए तो वस्तु ही नहीं रहेगी अत: सिद्धत्व स्वभाव शरीर के आश्रित है, यही अंतिम निर्णय है इसलिए-ऐसो सिद्ध स्वभाव के इस शून्य स्वभाव में अपने एक मात्र स्वभाव का अनुभव होता है उसी को शून्य उत्पन्न प्रवेश का अभिप्राय है कि मुक्ति श्री अपने ही ज्ञान स्वभाव में है। १५५ स्वभाव कहते हैं।
मुक्ति श्री का अभिलाषी ज्ञानी साधक अपने स्वरूप के आश्रय से अंतर में सत् चित् आनंद स्वरूप जो आत्मा है, इसका त्रिकाली चैतन्य भाव वह ही मुक्ति का अनुभव करता है, वह समस्त व्यवहार विकल्प आदि को गौण करके स्वभाव इसके सम्मुख होकर वर्तमान में यह चैतन्य मात्र भाव मैं हूं ऐसा निर्विकल्प शुद्ध नय के द्वारा अपने आत्म वैभव का दर्शन करता है, वहां शुद्धनय आत्म होकर अनुभवन करना यही आत्मा को ग्रहण करना है। स्वभाव को प्रगट करता हुआ उदय रूप होता है। वह आत्म स्वभाव को पर द्रव्य, सत् यह द्रव्य स्वभाव जो त्रैकालिक एक रूप रहता है, चेतना यह गुण पर द्रव्य के भाव तथा पर द्रव्य के निमित्त से होने वाले परभावों से भिन्न प्रगट स्वभाव जो द्रव्य के जैसा ही सदैव शाश्वत रहता है और आनंद रूप अनुभवन करता है और वह आत्म स्वभाव संपूर्ण रूप से पूर्ण है, समस्त लोकालोक का करना यह पर्याय स्वभाव, इस प्रकार यहां द्रव्य गुण पर्याय तीनों आ गए परंतु ज्ञाता है ऐसा प्रगट करता है, क्योंकि ज्ञान में भेद कर्म संयोग से है, शुद्धनय में सच्चिदानंद के अनुभव में तीनों अभेद रहते हैं। सद्गुरु प्रेरणा देते हुए कहते हैं कर्म गौण हैं। शुद्धनय आत्म स्वभाव को आदि अंत से रहित प्रगट करता है। कि जिसे धर्म करना है अर्थात् सुखी होना है उसे निमित्त, राग और भेद की दृष्टि अर्थात् किसी आदि से लेकर जो किसी से उत्पन्न नहीं किया गया और कभी भी दूर करके इन सबसे विमुख होकर अभेद एक चैतन्य मात्र आत्मा में ही दृष्टि एकाग्र किसी से जिसका विनाश नहीं होता ऐसे पारिणामिक भाव को प्रगट करता है। करना चाहिए। वहां आत्म स्वभाव एक, सर्व भेदभाव अर्थात् द्वैत भाव से रहित एकाकार अनुभव १५४. परमात्म प्रकाश, आचार्य योगीन्दुदेव,२/१७४, १७५
१५६. समयसार, आचार्य कुंदकुंद,आत्मख्याति टीका, कलश १०, पृ.-३५ १५५. ग्रंथ रत्नत्रय, सिद्ध स्वभाव, सूत्र ५, सागर प्रकाशन, १९९१
१५७. श्री अध्यात्मवाणी, सुन्न सुभाव, सूत्र १, पृष्ठ ३९५ १०८
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