Book Title: Om Namo Siddham
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Bramhanand Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 63
________________ काव्य अर्थ करते हुए कहा है कि ओंकार सिद्ध को नमस्कार हो, उवन सिद्ध को नमस्कार हो, अपनी अनुभूति में प्रसिद्ध अपने सिद्ध को नमस्कार हो। १४९ वस्तुत: सिद्ध परमात्मा के समान अपने सिद्ध स्वरूप का अनुभवन करना ही 'ॐ नम: सिद्धम्' का अभिप्राय है । आचार्य श्री जिन तारण स्वामी ने श्री छद्मस्थवाणी ग्रंथ के द्वितीय अधिकार, तृतीय अधिकार एवं चतुर्थ अधिकार का प्रारंभ ॐ नम: सिद्धम् मंत्र से ही किया है। पूज्य जयसागर जी महाराज इस ग्रंथ की टीका के अंतर्गत लिखते हैं - ॐ नमः सिद्धम्। ॐ शुद्धात्मने सिद्धम् सिद्धस्वरूपाय नमः नमोऽस्तु नमस्कार करोमि । शुद्ध स्वरूपं सिद्ध स्वभावं स्वीकरोमि । अर्थ- ओंकार शुद्धात्म स्वरूप सिद्ध स्वभाव को नमस्कार हो । ओंकार शुद्धात्मा को सिद्ध स्वरूप को नमस्कार हो। शुद्ध स्वरूप और सिद्ध स्वभाव को मैं अपने स्वरूप में स्वीकार करता हूं। ॐ नमः सिद्धेभ्य: मंत्र स्मरामि मनसि सदा। नमः शुद्धात्मने सिद्धम् सोऽहं सिद्धोऽस्मि निश्चयः॥ ॐ शुद्धात्मा के स्वरूप को तथा सिद्ध भगवान को इस सूत्र में नमस्कार किया गया है, अपने आत्मा को मानने वाला सिद्धों को नमस्कार करता है। यहां प्रश्न होता है कि यहां परदृष्टि हुई या नहीं? उत्तर है- परदृष्टि नहीं हुई क्योंकि नमस्कार करने के पूर्व अपने सिद्ध स्वभाव की श्रद्धा आई, जैसा अपना सिद्ध स्वभाव है, हमारा निश्चय में जो स्वरूप है वैसा परिपूर्ण स्वरूप जिनका प्रगट हो गया, द्रव्य गुण पर्याय जिनके तीनों एक हो गए, ऐसा जानकर उन सिद्धों के प्रति उल्लास भाव पूर्वक बहुमान का भाव आता है। उनको नमस्कार और अपनी अनुभूति दोनों साथ हैं। जितना भक्ति का भाव सिद्धों के प्रति प्रगट हो रहा है उतनी ही अनुभूति अपनी तथा सिद्धों के स्वभाव से अपने शुद्ध स्वभाव की तुलना हो रही है और इससे अपने सम्यक्त्व भाव की अनंत दृढ़ता हो रही है। इस तुलनात्मक स्वानुभूति से अपनी अनुभूति में भी यही सिद्ध होता है कि सम्यक्दृष्टि आत्मदर्शी निग्रंथों की नमस्कार भी असाधारण अर्थ को रखती है। सिद्ध स्वरूप के ज्ञाता सिद्धों को नमस्कार करें तो वह नमस्कार भी कैसा होगा? अतएव नमस्कार करने वाले को अपना नमस्कार हो। १४९. श्री छद्मस्थवाणी, टीका-समाज रत्न पूज्य श्री जयसागर जी महाराज, २/१,सागर प्रकाशन सन् १९९१ १०४ आत्मा में स्थापना कर शुद्ध सिद्ध स्वभाव की। गुरुदेव करते हैं नमन यह वंदना निज भाव की॥१५० यह भाव वंदन अपने आत्म स्वरुप के आश्रय और अनुभव से होता है। शुद्ध निश्चयनय से आत्मा स्वयं ही परमात्म स्वरूप है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव ने नियमसार ग्रंथ में लिखा है - जारिसिया सिद्धप्या भवमल्लिय जीव तारिसा होति । जरमरणजम्ममुहा अह गुणाल किया जेण ॥ अर्थ- जैसे सिद्ध परमात्मा हैं वैसे ही भवलीन संसारी जीव हैं। सिद्ध परमात्मा के समान स्वभाव से वे संसारी जीव सिद्धों की भांति जन्म जरा मरण से रहित और आठ गुणों से अलंकृत हैं। असरीरा अविणासा अणिंदिया णिम्मला विसद्धप्पा। जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी णेया ॥ अर्थ-जिस प्रकार लोकाग्र में सिद्ध परमात्मा अशरीरी अविनाशी अतीन्द्रिय निर्मल और विशुद्धात्मा हैं उसी प्रकार संसार में जीवों को जानना चाहिए। १५१ आत्मा निश्चयनय से स्वयं ही परमात्मा के समान है। जीव की संसारी दशायें कर्म के कारण बनती हैं। कर्म के उदय निमित्त से जीव का संसारी परिणमन चलता है किंतु आचार्य नेमिचंद्र जी के अनुसार-"सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" अर्थात् शुद्धनय की अपेक्षा से अथवा शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से सब संसारी जीव शुद्ध हैं अर्थात् सहज शुद्ध एक ज्ञायक स्वभाव वाले हैं। १५२ परिपूर्ण त्रिकाली ध्रुव तत्त्व शुद्धात्मा स्वयं ही है, उसके सन्मुख होने पर वह तत्काल निज रस से ही प्रगट होता है । वह आदि मध्य अंत रहित, अनादि अनंत सिद्ध स्वरूप समयसार शुद्धात्मा अनुभूति से ही जाना जाता है। यह शुद्ध वस्तु चैतन्य तत्त्व त्रिकाल है। पर्याय में प्रसिद्धि हुई है यही अनुभूति की दशा है। यह तत्त्व ज्ञानानंद स्वरूप है। जब यह आनंद का नाथ स्वयं से स्वयं में स्थित होता है तब समस्त विकल्पों की आकुलता को छोड़कर निराकुल आनंद रूप पर्याय में प्रगट होता है। अनाकुल केवल एक समस्त विश्व से विलक्षण ज्ञानी ऐसा अपने आत्मा को अनुभवता है। केवल एक का ही अभेद अनुभव करता है, वहां यह द्रव्य है, यह पर्याय है ऐसा भेद नहीं होता, केवल एक सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्म तत्त्व ही अनुभव में रहता है। ऐसा अनुभवन ही भगवान की वाणी का सार है। १५०. वही,३/१, पृष्ठ १२६ १५१. नियमसार, कुन्दकुन्दाचार्य, गाथा ४७,४८ १५२. वृहद् द्रव्य संग्रह, नेमिचंद्राचार्य, पृ.३६ १०५

Loading...

Page Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100