Book Title: Om Namo Siddham
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 48
________________ के नाम से भी जाना जाता है। अस्तु, गोम्मटराय की प्रेरणा के कारण गोम्मटसार की रचना हुई इसी कारण इसका नाम गोम्मटसार रखा गया। गंगनरेश राचमल्ल का राज्यकाल विक्रम संवत् १०३१ से १०४१ तक माना जाता है। इसी आधार पर चामुण्डराय का समय ११वीं सदी पूर्वार्द्ध निश्चित होता है; चूंकि नेमिचंद्राचार्य जी ने चामुण्डराय की प्रेरणा से ग्रंथ की रचना की अत: उनका काल भी ११ वीं सदी का पूर्वार्द्ध ही ठहरता है। ६ गोम्मटसार में जो ६४ मूलवर्ण माने गए हैं, उनमें से ल वर्ण संस्कृत में नहीं है, उसका वहां प्रयोग न होने से ६३ वर्ण होते हैं। तब भी अनुकरण में अथवा देशांतरों की भाषा में आता है इसलिए चौंसठ वर्गों में इसका भी पाठ है। इसी कारण पाणिनीय शिक्षा ३ में कहा गया है त्रिषष्ठिः चतुष्पष्ठिर्वा वर्णा शम्भुमते मता: । प्राकृते संस्कृते चैव स्वयं प्रोक्ता स्यम्भुवा ॥ हिन्दी में ३३ व्यंजन,१६ स्वर और युग्माक्षर मिलाकर ५२ वर्ण माने जाते आचार्य श्री मद् जिन तारण स्वामी ने ज्ञान समुच्चयसार ग्रंथ में ५२ अक्षर इस प्रकार बताए हैं ॐ नम: सिद्धम् ५ अक्षर, १४ स्वर और ३३ व्यंजन। ८ जैनागम के ज्ञाता, अनेक ग्रंथों के टीकाकार स्व. ब. शीतल प्रसाद जी ने आचार्य तारण स्वामी के १४ में से ९ ग्रंथों की टीका की है। श्री ज्ञान समुच्चय सार ग्रंथ की टीका में अक्षर, स्वर, व्यंजन का प्रकरण जहां समाप्त हुआ है वहां उन्होंने गाथा ७६३ और ७६४ के भावार्थ में लिखा है अभ्यर सुर विजन रुवं, पदविंद सुध केवल न्यानं । न्यानं न्यान सरुवं, अप्पानं लहंति निब्वान ।। ७६४॥ अर्थ-पांच अक्षर, चौदह स्वर और तैंतीस व्यंजन के द्वारा शुद्ध केवलज्ञान पद के धारी अरिहंत तथा सिद्ध का मनन करना चाहिए। अपने ज्ञानमयी आत्मा को ज्ञानमय आत्मा रूप ध्यान कर निर्वाण को प्राप्त करना चाहिए। ७९ यहां चौदह स्वर, तैंतीस व्यंजन व पांच अक्षरी 'ॐ नम: सिद्धम्' मंत्र इन। बावन अक्षरों के मनन का सार यह है कि हम सिद्ध परमात्मा को पहिचानें, जो रागादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि आठों द्रव्यकर्म व शरीरादि नो कर्म से रहित हैं। परमानंद में निरंतर मग्न हैं। मोक्ष स्वरूप अमूर्तीक ज्ञानाकार तथा पुरुषाकार निकल परमात्मा निरंजन देव हैं। सिद्ध सम आपका ध्यान ही मोक्ष का साधन है। मंत्र का मुख्य अभिप्राय तो अपने सिद्ध स्वरूप की आराधना अनुभव है। श्री जिन तारण स्वामी कहते हैं कि बावन अक्षर ही मुख्य हैं, जिनसे अपने अक्षय स्वरूप की आराधना होती है और इन अक्षरों से ही शास्त्र की रचना होती है। श्री उपदेश शुद्ध सार ग्रंथ में उन्होंने लिखा है कि बावन अक्षरों का क्या प्रयोजन है - बावन अव्यर सुद्धं, न्यानं विन्यान न्यान उववन्नं । सुद्धं जिनेहि भनियं,न्यान सहावेन भव्य उवएसं॥ अर्थ-बावन अक्षर शुद्ध होते हैं, उनसे शास्त्र की रचना होती है, शास्त्र से अर्थ बोध ज्ञान होता है, अर्थ बोध ज्ञान से भेद विज्ञान होता है, भेद विज्ञान से आत्म ज्ञान पैदा होता है। ऐसा शुद्ध अक्षर ज्ञान जिनेन्द्र भगवान ने कहा है, ज्ञान स्वभाव का भव्य जीवों को उपदेश दिया है। १ यहां भी आचार्य तारण स्वामी ने बावन अक्षर की विशेषता बतलाई है। क्रम भी वही है- ॐ नम: सिद्धम्-५ अक्षर, १४ स्वर, ३३ व्यंजन यही जिनवाणी के मूल आधार हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में अक्षरावली का प्रारंभ 'ॐ नमः सिद्धम' मंत्र से होता था इसलिए श्री तारण स्वामी ने सर्वप्रथम 'ॐ नम: सिद्धम्' मंत्र को लिया, वे वीतरागी आत्मज्ञानी छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती भावलिंगी संत योगी साधु थे। उनने इस मंत्र का और संपूर्ण अक्षरावली का आध्यात्मिक स्वरूप स्पष्ट किया है। व्यवहार से यह बावन अक्षर शुद्ध होते हैं क्योंकि यह नाश रहित हैं, अनादिनिधन हैं, इन्हीं के संयोग से शास्त्रों की रचना होती है, ज्ञानी और अज्ञानी जीव द्वारा इनका जैसा प्रयोग किया जाता है वैसा ही शब्द भाषा और अर्थ हो जाता है। जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि द्वारा शुद्ध अक्षर, ज्ञान स्वभाव आत्मा का भव्य जीवों को उपदेश दिया गया है। उनकी वाणी ही जिनवाणी कहलाती है। ८०. वही, गाथा ३६३ का भावार्थ ८१. उपदेश शुद्धसार, पूज्य ज्ञानानंद जी महाराज कृत टीका, गाथा-३३ ७६. जैन साहित्य और इतिहास, बंबई प्रकाशन, पृष्ठ-२७२ ७७. गोम्मटसार जीवकांड, अगास प्रकाशन १९८५, पृष्ठ- १७९ ७८. ज्ञान समुच्चयसार, आचार्यतारण स्वामी, अध्यात्मवाणी प्र.५९-६२ ७९. ज्ञान समुच्चयसार, ब्र. शीतलप्रसाद जी टीका, दि. जैन तारण तरण चैत्यालय ट्रस्ट कमेटी सागर प्रकाशन, तृतीय आवृत्ति १९९६, पृ.३५४ ७४

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